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४४:हिन्दी-निरुक्त
 

वह गधी । वैश्यों को अपने व्यापार से मतलव ! उन्होंने एक लिपि ही अलग बना ली थी-'मुड़िया' । साधारण जनता को शिक्षा दुर्लभ । हिन्दी को कौन पूछता? संस्कृत के पंडितों में--ब्राह्मण-वर्ग के एक छोटे से समुदाय में-हिन्दी का लिखना-पढ़ता जारी रहा; सो भी इसलिए कि संस्कृत की लिपि भी नागरी है, जो हिन्दी की। फलतः जो पण्डित संस्कृत कम पढ़-लिख पाते थे, वे हिन्दी पढ़ते-लिखते थे। उन्होंने 'छह' उच्चारण सुना, तो उच्चारण-साम्य से, विसर्ग देकर 'छ:' लिखने का उपक्रम किया। विसर्ग तो शुद्ध चीज ठहरी; संस्कृत से आयी हुई ! बस, इन पण्डितों के इस 'छ:' शब्द को लोगों ने स्वीकार कर लिया और इसकी ऐसी जड़ जमी कि अब तक हिल . नहीं रहो है ! कहने का मतलब यह कि विसर्ग को या उस से मिलते-जुलते ज्यादह आदि के अन्तिम वर्ण को 'अ' होते देखा गया है, जो सवर्ण- दीर्घ हो कर रहता है। परन्तु अकारान्त संज्ञा आदि से परे ही यह सब होता है। संस्कृत में अकारान्त पुल्लिग संज्ञा आदि में पहली विभक्ति का एक वचन जब आता है, तो उस का रूप-'रामः, मधुर, क:' आदि होता है । नपुंसक लिंग में ऐसी जगह 'म्' लगता है--ज्ञानम्, मधुरम्, किम् आदि। स्त्री-लिंग में भी इस जगह विसर्गों का प्रयोग नहीं होता है। फलतः 'राम.' आदि में विसर्गों को पुं-व्यंजक चिह्न आगे चल कर मान लिया गया। कई प्राकृत-अपभ्रंशों में विसर्गों को इस स्थल पर निर्वाध 'ओ' का रूप दे दिया गया-विसर्ग एकदम समाप्त ! संस्कृत में 'रामः कस्य' रूप होते हैं, जो प्राकृत-अपभ्रंशों में---'रामो कस्स' होने लगे ! विसर्गों का स्-श् के रूप में बदलना भी उड़ा दिया गया। सर्वत्र-'ओ' । यही 'ओ' ब्रजभाषा में विभक्ति है, जिसे हम 'धू-व्यंजक' विभक्ति कहते हैं और यह सदा संश्लिष्ट' रहती है। मिष्टः, सकल , कृतः आदि की तरह मीठो, सगरो तथा कियो आदि में इस का उपयोग होता है। परन्तु विचित्र बात है कि विसर्गों से विकसित यह विभक्ति (ओ) ऐसे ही अकारान्त पुल्लिग शब्द में लगती है, जो विकास-प्राप्त हो, तद्भव हो !'सुन्दर' का 'सुन्दरो' न होगा, न 'बालक' का 'बालको' । नपुंसकलिंगा हिन्दी में है ही नहीं। स्त्री-लिङ्ग में यह 'ओ' विभक्ति लगती नहीं है: पूर्व परम्परा का ध्यान कर के । 'भित्ति' का तद्भव