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हिन्दी-निरुक्त  : ४५
 

'भीत है, जिस में 'ओ कभी भी न लगेगी। महिषी का 'मैं बना कर फिर इस में 'ओ' विभक्ति नहीं लगायी गनी---- भैम हो रहने दिया गया। पुल्लिग में जहर वह लगी-भंसा। रानी का वाचक शब्द महिषो' अधिकृत रहा ? साधारण जनता को उस के व्यवहार में क्या मनलवरानी चलता रहा। एक दूसरे क्षेत्र में विसर्गों का रूपान्तर में के रूप में हुआ. जिस की प्रक्रिया का उल्लेख पहले किया जा चुका है। हमें प्राकुन-अपनंश का वह रूप कहीं साहित्य में उपलब्ध नहीं, जहाँ 'राम.' का वैसा विकास होकर 'रामा' आदि का का मिला हो। संस्कन में स्त्री- लिङ्ग का चिह्न है-रमा, लना, सुनोला । सम्भव है, इसी लिए गमः आदि का बैना रामा आदि) विकास न गृहील हुआ हो; नाहिल्य में। परन्त जनता में बैसा चलन हा होगा और स्त्री-लिङ्ग का भ्रम दूर करने के लिए आगे चल कर उन्हें (त्री-लिङ्ग वादों को अस्त्र करना पड़ा होगा--आकारान्त से अकारान्त किया गया होगा- कोकिला-कोयल, जंबा-जाँच आदि । स्त्री-व्यंजक 'ई' प्रत्यय (हिन्दी ने संस्कृत का ही रखा और पुल्लिङ्ग से स्त्री-लिङ्ग बनाने में उसी का उपयोग किया जड़का-लड़की, बुवा-ड्डौ । 'वृद्धा' मंस्कृत में श्री- लिंग, 'बुड्ढा' हिन्दी में पुल्लिग । स्पष्ट ही यहां हिन्दी ने अपना अलग व्यक्तित्व प्रकट किया है। यह ) त्रिभक्ति पूरवो हिन्दी में भी क्वचित् दिखायी देती है—'राम गवा' 'गोविन्द आवा' ! 'गया---आया के य् को व् हो गया है। पुं-व्यंजक विभक्ति ज्यों की त्यों है। स्त्री- लिंग में वहाँ भी 'ई' है--गई-आई। ___ 'सो' इस तरह हिन्दी की यह आ' तथा 'ओ'विभक्त जनमी और बढ़ी। ____ 'र' में 'आ विभक्ति लगा कर तुम्हारा: 'ओ' लगा कर तुम्हारो- तिहारो-थारो ! थारो' फिर तुम्हारा' का नंग पाकर 'थारा' । 'थारा' पंजाब में 'वाडा'। फिर 'ड' को 'द' कर के सर्वत्र राम दा', 'गोपी दे' आदि। इस द' का 'क' कर के राम का 'गोपी के आदि हिन्दी इस प्रकार यह विभक्ति-कथा संक्षेप में हुई। र-ड' और 'द-क की तो बात ही कुछ नहीं; ऐसे-ऐसे परिवर्तन होते हैं कि कुछ पता ही नहीं चलता! कभी-कभी एक ही दसल के लोग दूर जाकर रूप-रंग