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४६ : हिन्दी-निरुक्त
 

में और आकार-प्रकार में इतने बदल जाते हैं कि पहचानना कठिन हो जाता है। तब उन के आचार-विचार तथा रीति-रिवाज आदि देख कर और उसकी समता खोज कर मूल-निर्धारण किया जाता है । जिसे पता न हो कि गन्ने के रस से चीनी बनती है, वह रूप-भिन्नता के कारण कल्पना भी न कर सकेगा कि चीनी गन्ने के रस का ही परि. वर्तित रूप है! कोई लाल वझक्कड यह भी कह सकता है कि खडिया पीस कर चीनी या वरा बनाया जाता है ! जब उस से पूछा जायगा कि खड़िया में मिठास कैसे और कहाँ से आ गया, तब वह मुँह फैला देगा। _ हिन्दी-शब्दसागर में कुछ इसी ढंग से शब्दों की व्युत्पत्ति बतायी गयी है । 'सुब' हिन्दी का प्रसिद्ध शब्द है-'मेरी सुध लीजो दीनानाथ' । इस सुध' शब्द का विकास संस्कृत 'शुद्ध' शब्द से बतलाया गया है; यानो 'श' को 'स' हो गया, और द् का लोप । परन्तु यह नहीं सोचा गया कि शुद्ध तथा सुब' के अर्थ में कोई दूर का भी सम्वन्ध है या नहीं ! अर्थ से क्या मतलब ! चीनी के मिठास की बात मत पुछोः रूप-रंग देखो: खड़िया से मिलता है न ? इसी तरह की नब्बे प्रतिशत शब्द-व्युत्पत्तियाँ उसी सागर में आप देख सकते हैं ! प्रत्यय- कल्पना भी वहाँ बड़ी विचित्र है ! खैर, हम कह रहे थे कि रूप-रंग न मिलने पर भी आन्तरिक तत्त्व की एकता से खोज की जाती है । ऊपरी वनावट न मिलने पर भी प्रवृत्ति-साम्ब से मूल की खोज होती है; जैसे कि दा, दे, दी और का, के, की, के मामले में हुई। १६-किसी एक हड्डो की समानता __ कभी-कभी किसी एक हड्डी की समानता से ही मूल पुरखों की खोज हो जाती है; यदि और बातें भी वैसो गवाही दें। पंजाब में एक शब्द जन-प्रसिद्ध है---'तू'। जिसे हम बहू या पतोहू कहने हैं, पंजावी भाषा में उसे 'तू' कहते हैं । आप इसकी परम्परा बता सकते हैं ? कोई कह देगा कि 'वधू' के 'व' का लोप और ध् को न्-'न' । परन्तु इतना सरल काम यह नहीं है । हम कहेंगे कि ध, भ, ढ, ध इन महा प्राणों को 'न' म' आदि मधुर अल्पप्राणों में बदलने के कुछ उदाहरण- दोजिए। आप के कहने से हम न मान लेंगे कि शेर दुवला होते-होते अन्त में