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हिन्दी-निरुक्त  : ४७
 

हिरनी बन गया। उसकी महान हमें एसा विश्वास न होने देगी। आगे खोज कीजिए। न शब्द संस्कृत के अनुपा शब्द ले बना है। 'स्' का लोप और अन्न के पा' का भी लोप । 'न' के 'उ' को दीर्घ- ऊ। बन गया 'न। स्नुषा का अर्थ ज्यों का त्यो 'तू में है। कभी अर्थ- विकास भी होता है । हिन्दी में एक शब्द है अंझा' । अर्थ है इसका छुट्टी, नागा होना । मिल-मजदुर से बाबू कहता है- इस महीने में तुम्हारे कितने अंझे हैं ? आप समझे, यह अंझा किस शब्द का रूपान्तर है? संस्कृत में एक भब्द है-'अन्नध्याय जो शिक्षा-मन्थाओं में 'छुट्टी के अर्थ में प्रयुक्त होता है। प्रतिपको अनध्याय रहता है। 'शिक्षा-संस्था में छुट्टी' यह 'अनध्याय' शब्द का मूल अर्थ है । 'अशा में इन अर्थ का विकास हो गया। मामान्यतः छुट्टी-मात्र के लिए 'अंझा' चल पड़ा, काम न होने के अर्थ में अनया में धू तथा य् का स्थान-परिवर्तन-वर्ण-व्यत्यय । 'आहेसी स्थिति। धू के द का लोप ह शेष । उ को ज् और ज-ह, मिलकर 'झ्न के अका लोप और इस (न्) को अनुस्वार । अन्त्य 'य' का भी लोप । तब बना 'अंज्ञा । अन्त में वही पुं-विभक्ति-'आ लग गयी। दोनों य-य् का लोप होकर भी वेसा रूप सम्भव है--धू को झ करके। पर है यह 'अनध्याय' से ही। इतनी दूर जाने की झंझट में न पड़ कर कोई कहे 'अनुज्झित से 'अंझा है, तो कैसा रहेगा? फिर इसी 'अंझा' के 'अंका लोप करके वह 'झा' बताये, तो ? 'झा' की व्युत्पत्ति यह करें कि जो अंझा वहुत करे, काम को अनुज्झित करने की-पूरा किये बिना छोड़ने की-जिस की प्रवृत्ति न हो, वह 'आ' । साधारणतः लोग कहेंगे कि हाँ भाई, ठीक है। डा० अमरनाथ झा तथा श्री वी० एन० झा आदि को देखा है; काम करने में कितने चुस्त हैं ! परन्तु विचारशील लोग पूछेगे कि यह बात क्या अन्यत्र नहीं है ? और क्या सभी 'झा 'अनुज्झितकर्मा' ही होते हैं ? ऐसी बात तो है नहीं। यह अटकलपच्चू व्युत्पत्ति मान्य न होगी । ब्राह्मणों के अतिरिक्त और किसी वर्ण या वर्ग में 'झा' या 'ओझा' शब्द व्यवहृत ही नहीं होता। संस्कृत का 'उपाध्याय' शब्द सामने है । पढ़ाने-लिखाने का काम करने के कारण ब्राह्मण-वर्ग उपाध्याय'। इस उपाध्याय' से 'ओझा': जैसे अनध्याय से 'अंझा। फिर 'ओ'का भी प्रदेश-विशेष में लोप--'झा। इस गये- गुजरे जमाने में भी पं० गौरी शंकर हीराचन्द ओझा तथा पं०