पृष्ठ:हिन्दी निरुक्त.pdf/४६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
४८:हिन्दी-निरुक्त
 

गंगानाथ झा महोदय ने जो काम सारस्वत क्षेत्र में किया, जो नाम पाया और राष्ट्रभाषा हिन्दी का जो इन्होंने मान बढ़ाया, वेजोड़ है। 'महामहोपाध्याय ये दोनों हुएओझा भी और झा भी । 'महामहो- पाध्याय होने पर भी दोनों विभतियों ने अपने परम्पराप्राप्त पद 'ऑझा' और 'झा' छोड़े नहीं- महामहोपाध्याय पं० गौरी शंकर हीराचन्द्र ओझा और महामहोपाध्याय पं० गंगानाथ झा । दूध में घी मिला कर लेवत। ___ सो, शब्द-विकास में रूप के साथ-साथ अर्थ पर भी ध्यान रखना होता है। हम यह बता रहे थे कि 'र' को 'ड' भी हो जाया करता है। उसी प्रसंग में विभक्ति-चर्चा चल पड़ी और वह सब संक्षेप से बत- लाया गया। अव कुछ अन्य वर्गों की भी विकास-प्रवृत्ति देखिए। 'ल' को प्रायः 'र' हो जाया करता है। दोनों अन्तःस्थ हैं, दोनों अल्मप्राण हैं और उच्चारण में भी बहुत कुछ समता है । 'काला 'पीला' अजभाषा में कारो' 'पीरो' बन जाते हैं। पर 'नीला' वहाँ 'तीरो' नहीं बनता। 'आओर 'ओं विभक्तियाँ तद्भव संज्ञा-विशेषणों में ही लगती हैं। नील तत्सम है पर अपवाद-स्वरूप इसका 'नीला' है-पोला' के साथ । हाँ, 'ड' या 'ड' प्रायः 'र' के रूप में आ जाते हैं-झगड़ा--झारो । परन्तु 'उड़ना' कभी 'उरना' नहीं बन सकता । 'व का प्राय. व हो जाता है; यह कहा जा चुका है। श और ष हिन्दी में प्रायः सके रूप में बदलते देख गये हैं-शाक-साग, शिर- सिर ! और---'पोडश'-'सोलह' ! अन्त्य 'श' को 'स' और फिर 'ह। 'ड' को 'ल हो गया !' तथा 'ल' का उच्चारण-साम्य ही ऐसा है कि झट ये एक दूसरे की जगह ले लेते हैं ! 'दश' को 'दस' हम जानते-पहचानते हैं: परन्तु प्रक्रिया में यह 'स' कोह' के रूप में कर लेता है-दहला, दहाई आदि। यह बात प्रायिक है । सर्वत्र प्रक्रिया में स को ह हो जाता हो, सी बात नहीं है-'दसहरा' । यहाँ 'दस' का 'दह नहीं हुआ। क्यों? इसलिए कि दोह' एक जगह बहुत कर्ण-कटु तथा दुरुच्चारण हो जाने । 'दहहरा बड़ा भद्दा लगता । इसलिए वैसा नहीं हुआ। कभी-कभी 'दस' के 'द' को र' भी हो जाता है--'तेरह । 'ते' तो 'तीन' का शेप है। परन्तु 'बारह में यह 'बा' क्या है ? आप जानते हैं ?