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हिन्दी-निरुक्त : ४९
 

२.--गिनती का बहिन्दी में क्या है ? वारह. बाइस, बनीम, बघालीन. बावन. बयासी, कानवे; कहीं भी दो की जरा भी अनक नहीं है। इन प्रयोगों में स्पष्ट है कि का और द का प्रयोग दो के अर्थ में हैं। इन कि पृथक हम दो ही बोलते हैं। एक और एक को होने हैं. वा या नहीं। नव फिर आगे संयुक्त अंकों के नामों में वह कहां से जभाषा की पुरानी कविता में अवश्य दो के लिए विवि का प्रयोग मिन्दना है--विधि लोचन' । परन्तु जज की जन-भाषा में त्रिवि नहीं: ‘दा वा हेही बोलते हैं। वात असल में यह है कि दुरडा (जिमा हो की सम्पनि का विभाजन जब हुमा, तो हिन्दी ने ई का अंग लिया और डी के आधार पर दो ब्रहण किया। यानी, कालोर और झी को 'ओ'। बन कर और एका सहारा लेकर गुजगन पहुंचा। गुजराती ने दिया वो का लिया व बता कर..-' आम----- दो आम ! गुजरातियों का नथुरा-गोकुल से अधिक अना-जाना रहा। और, वल्लभ-सम्प्रदाय में गुजराती हो अत्रिक हैं जिस सम्प्रदाय में महाकवि सुरदास ने दीक्षा ली थी। गुजराती-प्रभाव से हो ब्रजभाषा की पुरानी कविता में विवि आ गया है । परन्तु बाइस, वयालीस आदि नो जनलाशारण के प्रयोग हैं और सार्वत्रिक है। ये कैसे दन गये? इस का लम्बा किस्सा है। सिन्ध में 'दो' को 'ब' या 'बा कहते हैं। वही 'वया 'वा' हिन्दी के बयालीस नबा बावन में आप देख रहे हैं । तो, सिन्त्र से यह 'द्वौ' का 'ब' और 'बा' इस भाषा में कैसे आ मिला? यह ठीक है कि किसी एक भाषा का दूरी पर प्रभाव पड़ा करता है। फिर, सिन्धी भाषा तो हिन्दी की सगी बहन है- सिन्ध का एक रूप 'हिन्द' है और उसी से हिन्दी । म् का हू, होकर शब्द-विकास हुआ; अर्थ-विम्नार भी । सिन्त्र और सिन्ची अपने असली रूप में सीमित रहे; उनके विकसित रूम हिन्द तथा हिन्दी ने अत्यधिक सीना-विस्तार किया। यह भी ठीक है कि विदेशी (मुसल- मान) सिन्ध की ओर से ही इस देश में प्रविष्ट हुए और वे लिन्ध को 'हिन्द तथा हिन्द की भापा हिन्दी' समझते हुए आगे बड़े ! दिल्ली में उन्होंने स्थानीय (मेरठी) बोली को राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार