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५२: हिन्दी-निरुक्त
 

कारी किसी शिकार का पीछा करता हुआ कहीं का कहीं जा निकले ! २१-'स' का अलक्षित विकास स्पष्ट है कि स् प्रायः 'ह' के रूप में बदलता है ! संस्कृत में स् का विसर्ग होना भी लगभग यही चीज है। ह तथा विसर्ग का एक ही स्थान है और उच्चारण भी लगभग एक। संसार की प्रायः सभी भाषाओं में स् को ह, के रूप में बदलते आप देख सकते हैं । वर्ण- विकास में आधे खेल स्-ह, के हैं, आधे में शेष सत्र की कतर-ब्यौत । कभी-कभी स् का विकार अत्यन्त अलक्षित होता है। जैसे किसी महापुरुप के हर्ष-शोक आदि विकार सब लोग नहीं समझ पाते; उसी तरह 'स्' की भी बात समझिए । ___मिष्ट' से हिन्दो ने 'मोठ' बनाया । ए को स् हुआ ; स् फिर 'ह' बना और यह ह.ट' के अन्त में जा बैठा । इस उलट-फेर में पूर्व- स्वर की बन आयी----वह ह्रस्व से दीर्घ हो गया। 'मिष्ट' का 'मीठ' वन गया—'गुड़ मीठ लागति है ।' मेरठ की. और पु-व्यंजक विभक्ति ऐसे तद्भव शब्दों में लगती ही है- 'मीठा । ब्रज में 'ओ' विभक्ति- 'मीठो' । परन्तु 'अष्ट' का 'ढी ही सर्वत्र चलता है-'डीठा' या 'ढीठी नहीं । यहाँ मेरु और ब्रज पर हमारी पूरबी हिन्दी की छाप है। 'धृष्ट का ढोठ पूरब में ही बना । परन्तु 'सीठा' और 'सीठो' को 'सृष्ट' या श्रेष्ठ' से न समझ लीजिएगा ! अर्थ भी तो देखना है न ? 'सीठा' अवश्य ही 'मीठा' के वजन पर गढ़ा गया है. उससे उलटे (नीरस) अर्थ में। पापाण' का 'पाहन' हो गया--" का न और ए का स् । फिर म का ह और स्वर-विकार-आ' को 'अ'-'पाहन' परन्तु कानपुर के इधर-उधर देहात में प्रदलित "परवाहन' को 'परोपण' जैसा कुछ न समझ लीजिएगा। रथ-बहली आदि सवारियों को पर्वाहन' कहते हैं । निश्चय ही यह-'प्ररोहण' का विकास है। इसी प्रकार वहाँ देहात में प्रसिद्ध शब्द 'उबहनी आप 'उद्भासिनी' आदि से न समझ लं! उबह्नी कुएँ से जल निकालने की रस्सी को कहते हैं । अवश्य ही यह 'उद्वाहिनी' का रूपान्तर है.-'उत् ऊर्ध्वम् वाह्यते अनया'- चूकि इससे (जल) ऊपर खींचते हैं न? 'उवहनी' में 'उत्' उपसर्ग