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हिन्दी-निरुक्त  : ५३
 

'उ' बन गया है: अर्थात 'न्' का लोप ! ____ भाप में स् अवश्य अलक्षित कार से बैग है-बाप्प भाप । व् को व और प् कोस् । फिर म कोह हुआ और यह ह जा बैठा 'व्की बगल में । बन गया- 'भार' । है बड़े विचित्र बल करता है । इसी ने दक्षिण में पाठक को 'फाटक बना दिया है पं. रामचन्द्र सदाशिव फाटक । यहाँ फाटक को 'कपाट का विकास न समझा जाय; कारण महाराष्ट्र ब्राह्मणों का वह वर्ग (फाटक लोग किसी को जाने-आते से रोकने का काम नहीं करता है। पाठक में 'र' के साथ बैठा हुआ 'ह, धीरे से उठ कर प से जा चिपका और पाठक को 'फाटक बना बैठा। हिन्दी ने स्वतन्त्र रूपने ही सब्द स्वीकार किये हैं। संस्कृत के 'सत्य' को सच' बना लिया: पर असन्य को 'अनच' के रूप में न लेकर जुष्ट (मधार्थक) से झूठ का विकास किया। देखा जाता है कि शब्द के अन्त में वैसा कुछ वर्ण-विकार होने पर पूर्व में स्वर दीर्घ हो जाना है-अप्ट-आठ । वर्ण का लोप होने पर भी पूर्व-स्बर दीर्घ होता है और अन्त्य-स्वर-विकार भी होता है-पण्डि-माद । इ' को 'अ हो गया: ' का लोप; आद्य स्वर दीर्थ । उभयथा बाब्द-प्रयोग तो हिन्दी में वद्धा होता ही है.. - केहरी, मुख-मुंह आदि । दोनों तरह के रूप चलते हैं। २२-स्वर-विकार स्वर-विकार की अनेक वातें ऊपर व्यंजन-विकार के साथ आ गयी हैं। कभी अकोइ' और भी हो जाता है। दीर्घको अस्व और ह्रस्व को दोर्ष होना तो साधारण चीज है। 'अंगुलि' का अँगुली' हो गया । अनुस्वार को अनुनासिक और अन्य स्वर दीर्घ । 'ड' को व और 'व'को उहोता रहता है। इसी तरह इ को और य को इ-ई भी सर्वत्र देख सकते हैं। कभी-कभी विकास की कई ऐसी सीढ़ियां आती हैं, जिन्हें सन्धि' कहते हैं-करहि' करइह का लोप। फिर एक बार विकास करे--करें ! अ-इ मिलकर एक जगह ऐ'; दुसरी जगह 'ए। 'करें" का घिसा-घिसाया सा ही करे' है। 'करे' का स्वतन्त्र विकास नहीं; यह भी कह सकते हैं; क्योंकि हिन्दी-प्रकृति 'अ' तथा 'इयाई की सुधि प्रायः ऐ के रूप में ही स्वीकार करती