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५४: हिन्दी-निरुक्त
 

है। इसी तरह 'करौ' से 'करो' कहा जा सकता है-'औ' को 'ओ' । करहु-करर। ह का लोप । फिर 'करौं' और 'करो'। इसी तरह 'भी' के अथ में हूँ' जो ब्रज में प्रसिद्ध है, उसके ह का भी लोप होता रहता है—'तुम हूँ'-'तुम । कहीं सन्धि भी~-चार हू-चार-उ (हस्व भी) और 'चारी' फिर 'चारों लोप की चर्चा अगले प्रकरण में होगी। यहाँ तो स्वर-विकार पर कुछ कहा जा रहा है। आद्य व्यंजन के 'ऋ' को 'ई' होते देखा गया है-शृङ्गार- सिंगार । श् को स भी। कहीं दीई 'ई' भी होती है---ङ्ग-सींग। 'ओ हिन्दी में भी बन जाता है और ' को 'ओ' भी हो जाता है। संस्कृत का 'त' अव्यय यहाँ'तो' बन गया है और तो' फिर-- 'न तु मारे जैहैं सब राजा' में 'तु' है । 'उ' को 'अहो जाता है--'नाहिं त मौन रहव दिन राती। परन्तु यह सब ब्रजभाषा और अवधी की कविता में ही । खड़ी बोली (राष्ट्रभाषा में) तो सदा 'तो' की ही तूती बोलती है। ___ 'इ' तथा 'ई' को इय् होते भी आप प्रायः देखते ही हैं ! 'तबीअत' 'तबियत' । आद्य व्यंजन की 'ऋ' कभी-कभी 'इर' रूप में भी आ जाती हैं। संस्कृत में 'ऋ' को अर् हुआ करता है; यहाँ 'इर' भी-कपाण- किरपान । 'ऋ' को 'अर' हुआ 'घर' में ही मागे आप देखेंगे। आद्य स्वर प्रायः ह्रस्व हो जाता है जनभाषा में-नारायण नरायन । परन्तु पाप-परायन ताप भरे परताप समान न आन कहू हैं' में 'परायन' शब्द पारायण' से नहीं है...'परायण' से 'परायन' है। शब्द-साम्य मात्र से बहक जाना ठीक नहीं । 'लड़का-लड़की की व्युत्पत्ति 'लकड़ा-लकड़ी से करना ठीक है क्या? पर जहाँ 'शुद्ध' से 'सुधबनता है, वहाँ असम्भव क्या है? वे वर्ण-व्यत्यय से 'लकड़ा' का 'लड़का भी बना देंगे । कहेंगे, लड़के की तरह यह भी जड़ (मूर्ख) होता है न ! तब तो 'कोयला' से 'कोयल' भी बन जायगी। टाँग भर ही तो तोड़नी है ! रंग की समानता विकास का कारण ! क्या यह ठीक है ? केवल अर्थ के सहारे भी शब्द-निरुक्ति ठीक नहीं। हिन्दी के एक बड़े 'डाक्टर' हैं: भाषा-विज्ञान के आचार्य ! हरिद्वार (ज्वालापुर-सत्यज्ञान-निकेतन) में उनका एक भाषण हुआ, काशी के श्री रामनारायण मिश्र के तत्वावधान में । इस भाषण में डाक्टर