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५६: हिन्दी-निरुक्त
 
'ब'; 'द को 'य' और 'य' को 'ई'। फिर वही स्वर-सन्धि ।

कार बताया गया है कि आद्य व्यंजन के 'ऋ' को 'इर' हो जाता है। परन्तु 'अर्' भी (संस्कृत की तरह होता है । 'गृह' का 'घर' बन गया--'ऋ' को 'अर्' अर् ह. अ ऐसी स्थिति हुई। 'ह.' अपने स्थान से उठकर ग् के साथ जा बैठा, तब ५ अर् अस्थिति हुई । आगे 'अ' में मिला और अपने पास के 'अ' में.---'घर' बनकर तैयार । इस तरह 'ह' यहाँ आगे गया है। इसी तरह हमारे वताये नियमों के अन्य अपवाद भी हैं। उदाहरणार्थ हमने कहा है कि हिन्दो जव संस्कृत की किसी आकारान्त संज्ञा या विशेषण आदि को 'शुद्ध' करके 'तद्भव' रूप में लाती है, तो उसके स्त्रीत्व-सूचक्र 'आ' (1) को हटा देती है, ह्रस्व कर देती है । यह वात प्रायिक है । स्त्री-लिंग बनाने के लिए 'आ' को ईकारान्त कर दिया जाता है। यह भी प्रासिक वात है। जब अल्पार्थक 'क' संस्कृत- प्रत्यय के साथ किसी आकारान्त स्त्री-लिंग संज्ञा आदि को यहाँ तद्- भव रूप मिलता है, तब ह्रस्व नहीं किया जाता है। उदाहरणार्थ संस्कृत का 'खट्वा' हिन्दी में 'खाट' बनता है- 'खाटा' नहीं । संस्कृत में छोटी खाट को खट्विका' कहते हैं। इसका स्त्री-लिंग तद्भव रूप हिन्दी में 'खटिया' है। इसी तरह 'पर्यडिका' का तद्भव रूप 'पलँगिया' है। इसे 'पलगिय' न होगा, न खटिया' को 'खटिय' । यदि अल्पार्थक 'क' न हो; 'स्वार्थ' में 'क' प्रत्यय हो, तब उसे (स्वार्थ में) हिन्दी तद्भद के रूप में ग्रहण न करेगी। 'बाल' और 'बालक' एक ही अर्थ में है। 'वाल' से स्वार्थ में 'क। 'बालक' का स्त्रीलिंग रूप 'वालिका' । अब हिन्दी इसे 'बालिका' बनाना पसन्द न करेगी। 'भत्तिका' को मिटिया' भी हिन्दी न बनायेगी। 'नासा' से स्वार्थ में 'क' कर के 'चासिका' बना। हिन्दी ने 'नासा' से 'नास नहीं बनाया; अच्छा न लगा । 'नासिका' से 'नाक' बनाया-'नासिया नहीं। हाँ, 'मट्टी' से 'भटिया' तद्धित बनाना अलग बात है। इसी तरह- 'पुस्तिका' का 'पुस्तिया' न होगा। न 'दीपक' के स्त्रीलिङ्ग 'दीपिका' का 'दीपिया' होगा। जहाँ 'क' प्रत्यय होता है, चाहे अल्पार्थक हो, चाहे स्वार्थ में, प्रकृति के 'अ' को 'इ' हो जाता है-'पर्य' से 'क' और पागे स्त्री-प्रत्यय 'आ। सवर्ण दीर्घ और पर्य' के अन्तिम 'अ' को 'इ'--'पर्याङ्किका'। ऐसे स्थल में सर्वत्र 'इ' मिलेगी। हिन्दी