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५८: हिन्दी-निरुक्त
 


आदि हैं। 'विंशति' का 'बीस' समझ में आता है; पर 'ऊन बीस' का 'उन्नीस' देखिए। अब आगे 'ईस' चलाइक्कीस, वाईस आदि । अलग 'दोस' ही है। 'छब्बीस' में 'ईस' नहीं हुआ। क्या कारण ? छईस' या 'छोस' अच्छा न लगा होगा। 'त्रिशत्' का 'तीस' ठीक रहा ! आगे तोस' का 'ईस' नहीं हुआ---'बीस' को जो वैसा वना दिया गया । भ्रम तो अभीष्ट नहीं। 'इकतीस' आदि अच्छे रहे। फिर 'चत्वारिंशत्' का 'चालीस' जचता है; किन्तु "ऊन चालीस' का 'उन- तालीस' कैसा रहा ? 'चा' का 'ता'--'चालीस', 'तालीस' ! 'यालीस' भी है.--'बयालोस'। परन्तु पंजाबी बतालीस' ही बोलते हैं । 'पंचाशत्' का पचास' बना; परन्तु "ऊन पचास' का 'उनचास' हो गया-'प' का लोप ! आगे तो 'पचास' का आभास भी नहीं—'इक्यावन', 'बावन' ! यह 'वन' कभी भी 'पचास' से नहीं बन सकता । 'पञ्चाशत्' का 'अन्' रह गया-शेष का लोप । 'च' के हटते ही अ को न् और सस्वरता। 'अन' में, आरम्भ में ही 'व' का आगम-'वन'- 'इक्यावन'। तिरपन' में 'प' का आगम् । आगे फिर 'वन'- 'चौवन' । आगे फिर 'पन' दो बार, फिर दो बार 'वन' भी-'सत्तावन'- 'अद्भावन' । षष्ठि-साठ । 'उनसठ' आदि भी मजे के रहे। 'सरसठ' में 'सात' का 'सर' हो गया; कहीं 'र' को 'ड' भी 'सड़सठ' । 'अठ' का 'अड़ तो बहुत दिचित्र नहीं। 'सप्तति' का 'सत्तर' हुआ। आगे 'स्' का 'ह.--'इकहत्तर' आदि । 'ससत्तर' में 'स' को 'ह' नहीं हुआ; 'अठहत्तर' में होकर भी कहीं हट गया—'अठत्तर'। लोप प्रायः 'ह' का ही होता है; स का नहीं । 'अशोति' से 'अस्सी' बना । आगे 'अस्सी' रहकर ससन्धि रूप हैं-'इक्यासी' आदि । 'नवति' का 'नब्बे' बनना कुछ समझ में ही नहीं आता ! परन्तु बना है। 'नवति' का 'नव-इ' शेष रहा जान पड़ता है, 'त्' उड़ गया ! व को 'ब' हुआ और अ-इ मिलकर 'ए'। ब् को द्वित्व हुआ--'नब्बे' ! कितना परिवर्तन ! हद है ! आगे नब्बे' 'नबे' है ! आगम (ऊपर से आया हुआ ब्) उड़ गया-- इक्यानबे, वानवे आदि । 'सत्तानबे' में 'सात' का 'सत्ता' हो गया है, जो अचरज की बात नहीं। पत्ते खेलते समय आप 'सत्ता' देखते ही हैं। 'निन्यानबे में 'नव' या 'नौ' को निन्या' हो गया है। यहाँ 'उनसौ' नहीं हुआ । 'शत' का 'सौ' कुछ अजब नहीं है। 'त' को 'य' और फिर 'इ तो होता ही है, पर 'व' और 'उ' होते भी देखा गया है-'घृत'-