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हिन्दी-निरुक्त ५९
 

'घिउ, 'कहीं-कहीं' (पंजाब आदि में) यौ भो। गतः'-'गया' और पूरब में गवा' भी। सो, 'शत' का 'स' और 'अ-उमिलकर 'औं- ____ आपने देखा, कितना विचित्र परिवर्तन है, संख्या-वाचक शब्दों में? इसी से भाषा के स्वच्छन्द विकास का अंदाजा लगाइए। फिर भी, कुछ व्यापक नियम निर्धारित किये ही जा सकते हैं। अपवाद तो नियमों के होते ही हैं और सब शब्दों को तो इन्द्र और पाणिनि भी नियमों में न बाँच सके ! तब उन्हें 'बाहुलक की मार लेनी पड़ी; भाषा की अनन्तमुखो प्रवृत्ति स्वीकार करनी पड़ी। ____ अच्छा, यह संक्षेप में वर्ण-विकार की चर्चा हुई । अब आगे 'वर्ण- लोप' भी जल्दी-जल्दी में कुछ देख लीजिए और फिर अर्थ-विकास' पर एक दृष्टि डाली जाय । बस, इस पुस्तक का इतना ही काम है। हाँ, संख्या-वाचक शब्दों के पूरणी रूपों पर कुछ कहना जरूरी था । 'द्वि' और 'त्रि' के द्वितीय -तुतीय' रूप हमारी समझ में आते हैं; पर 'एक' से 'प्रथमः' कैसे बन गया ? हिन्दी में भी पहला ऐसा ही है। अंग्रेजी में भी 'वन'-'ट' से 'फर्स्ट'- 'सेकण्ड' विचित्र प्रयोग हैं। 'चतुर्थः' का हिन्दी में 'चौथा ठीक है। अंग्रेजी में भी 'चतुर्थ' का ही 'थ' गया है क्या? यदि ऐसा है, तो अंग्रेजी ने इस 'थ' से ही आगे सब काम निकालकर बुद्धिमानी का परिचय दिया है-फोर्थ, फिपथ आदि। हिन्दी ने संस्कृत के 'मः' को 'वाँ आदि बनाने का प्रयास किया है.--पाँचवाँ, सातवां आदि । बीच में 'पप्ठः आ गया, जिसका हिन्दी ने 'छठा' किया-'छठवाँ' नहीं। अनेक साहित्यिक जन भी 'जार्ज षष्ठम गलत लिख देते हैं । 'छठवाँ भी गलत है। आगे तो हिन्दी ने भी सरलता कर दी है, सर्वत्र 'वाँ'। 'तमः' को 'तवा' बनाया-- विंशतितमः-'बीसवाँ' । सीधा-साफ मार्ग है, अन्धा भी मजे से चला जाय। यह सब होते हुए भी हिन्दी ने भरसक भ्रम तथा सन्देह की जगह नहीं दी है। २४---हिन्दी को प्रत्यय-कल्पना __में भी स्पष्टता की छाप विद्यमान है। ऊपर अल्पार्थक 'इया' प्रत्यय का उल्लेख हुआ है, जो पुल्लिङ्ग तद्भव संज्ञा को स्त्री-लिंग