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हिन्दी-निरुक्त : ६५
 

था! इस (RITA) को हमारे हिन्दी सम्पादकाचार्यों ने 'रीता' कर दिया ! 'रीता हिन्दी में पुल्लिङ्ग विशेषण है-रीता बर्तन'-खाली वर्तन ! बेचारी लड़की को पुल्लिङ्ग बनाया और सब गुणों या अवगुणों से शून्य भी कर दिया ! स्त्रीलिङ्ग होता है-रीती-रीती बोरी हमें वापिस देना।' इसी तरह 'साम्ब शिवम्' को हिन्दी-पत्र सम्बा शिवम् छाप रहे हैं । लड़की के लिए रीता तथा उस बलिदानी पुरुष के लिए सम्बा' शब्द बहुत भद्दे हैं और अपने भाग्य पर रो रहे हैं ! अस्तु, 'रिक्त आदि का रीता' आदि बन जाता है। इसी तरह- कर्म-काम, धर्म-धाम, चर्म-चाम आदि हैं। जनता में ही भापा-विकास होता है। सोना खान में स्वतः बनता है। हीरा भी अपने आप बनता है; परन्तु उसे साफ करना होता है; और शाणोल्लेख कर के सुडौल करना होता है। इसे 'मत्कार' कहते हैं। जब कोई जन-भापा या 'बोली' साहित्यिक भाषा का रूप ग्रहण करती है, तब अगणित नागरिक जनता का कंठहार बनने से पूर्व सुवर्ण-राशि को तमना-कटना भी होगा। जो (मेरठ-परिसर की) बोली, आगे चल कर खड़ी बोली, उर्दू, हिन्दी, राष्ट्रभाषा आदि कहलायी, उसमें रोट्टी, धोती, आदि कर्ण-कटु प्रयोग होते हैं। साहित्यिक भाषा ने एक-एक वर्ण का लोप करके रोटी, धोनी आदि सुन्दर शब्द बना लिये। इसे हम विकास न कहकर 'परिष्कार या 'संस्कार' कहेंगे---विज्ञजनों ने, कुशल डाक्टरों ने, जैसे किसी 'छंगे' की छठी अँगुली हँसते-हँसते आसानी से उड़ा दी हो। वर्ण-लोप के हजारों उदाहरण दे-दे कर पुस्तक के पृष्ठ बढ़ाये जाय; यह अच्छा नहीं। काम की विशेष बात कहनी चाहिए और वही यहाँ भी हैं। २६-स् तथा ह की चर्चा किया क्या जाय, भापा-विज्ञान में इन्हीं अक्षरों की करामात देखने में आती है। जाहु, जाउ, जाओ आदि में ह का लोप आप देख ही चुके हैं। संबोधन 'हे' का ह, उड़ गया---'ए' रह गया-'ए लड़के! यह 'ए' उर्दू में 'ऐ हो गया--'ऐ लड़के' ! 'राम हो, राम' इस दूर के संबोधन का 'हो' अपने 'ह, को हटाकर 'आ' रह गया---'ओ राम! यही नहीं, जिन संयुक्त व्यंजनों में ह. घुल-मिल गया है, उन से