पृष्ठ:हिन्दी निरुक्त.pdf/६६

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छठा अध्याय

२८-अर्थ-विकास तथा कुछ अन्य बातें पिछले अध्यायों में शब्द-विकास की विशेष-विशेष प्रवृत्तियाँ हमने देखों, और इस तरह अनन्त शब्द-सागर को कुछ जानकारी प्राप्त की। शब्द-विकास को जिन चार विभागों में हमारे महान् पुरखों ने रखा था, वे अब तक ज्यों के त्यों स्थिर हैं और सदा ऐसे ही रहेंगे । निरुक्त का पाँचवाँ तत्त्व है-- 'अर्थ-विकास' 1 भाषा के विकास में अर्थ-विकास भो महत्त्वपूर्ण चीज है। कच्चे आम के रूप-रंग आदि में जो कुछ आप देखते हैं: पकने पर वह सब प्रायः बदल जाता है। हरा रंग गुलाबी या सिन्दूरी आदि हो जाता है । कोमलता आ जाती है । कठोरता वैसी नहीं रहती। यह सब बाह्य परिवर्तन है। भीतरी परिवर्तन रस में होता है-खट्रसे बदलकर मीठा या खटमिट्रा हो जाता है। यह अन्तः-परिवर्तन है। कभी-कभी बाह्य परिवर्तन वैसा नहीं भी होता है, या बहुत कम होता है। इसी तरह भाषा के विकास में शब्द तथा अर्थ, दोनों का विकास हम देखते हैं। कभी-कभी शब्द-विकास मात्र होता है, अर्थ ज्यों का त्यों रहता है । आम ऊपर से रंग बदलकर सिन्दूरी हो गया, नरम भी हो गया; पर खट्टा पहले-जैसा ही ! कभी-कभी शब्द में कोई परिवर्तन नहीं होता; पर अर्थ कुछ बदल जाता है। कोई-कोई आम पक जाने पर भी रंग में हरे ही रहते हैं। स्वाद में महान अन्तर। शब्द तथा अर्थ दोनों में साथ-साथ परिवर्तन तो प्रायः हम देखते ही हैं। सो, अर्थ-विकास की ये सब धाराएँ आपके सामने हैं। ___ 'अभियुक्त', 'सम्पादक' आदि शब्द संस्कृत से हिन्दी में ज्यों के त्यों आये हैं; परन्तु अर्थ में परिवर्तन-परिवर्द्धन है। स्तन' 'थन' बना; परन्तु अर्थ की परिधि कम हो गयी ! 'थन' का प्रयोग पशुओं के ही लिए होता है । प्रक्रिया में कहीं मानवी-परिधि में भी 'थन' आता है। स्त्रियों को 'यनेला' (रोग) बहुत कष्ट देता है। अर्थ की परिधि का