पृष्ठ:हिन्दी निरुक्त.pdf/७

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पहला अध्याय

१-विषय-प्रवेश निरुक्त शास्त्र में भाषा के विकास पर विचार किया जाता है। जीवित या प्रचलित भाषा में परिवर्तन हुआ करता है । देश, काल तथा पात्र के भेद से शब्दों के उच्चारण में अन्तर आया करता है; क्योंकि उच्चारण-यंत्रों की भिन्नरूपता शब्दों की स्वरूप-भिन्नता में कारण है। हम लोग जिस सिक्के को पैसा' कहते हैं, उसी को पंजाब में 'पैहा' कहते हैं। स्पष्ट है कि 'पैसा से 'पैहा' भिन्न झब्द नहीं है। फिर भी भिन्न है; स्वरूप-भेद है। अंग्रेजों के देश (इंगलैंड) में जो प्रतिष्ठा- सूचक शब्द (सर) है, वह हमारे श्री शब्द का ही घिसा-घिमाया रूपान्तर हो, तो क्या अचरज की बात है ? वैसे 'सर' हमारे यहाँ भी वहुत पहले से है, जो पंचों में 'सरसंच' से स्पष्ट है। वही 'सर' जर्मनी में जाकर 'हर हो गया ! हमारे देश का 'सप्त' ईरान में 'हप्त' हो जाता है और हमारा 'सम' वहाँ 'हम' बन जाता है। एक ही देश में, और एक ही काल में भी, एक ही भाषा के एक शब्द में अनेकरूपता हम देख सकते हैं। संस्कृत का 'दश' हिन्दी में 'दस' बन गया और यही 'दस' फिर दहाई' तथा 'दहले' में अपने 'स' को 'ह' बनाये हुए है। काल-भेद से भी भाषा में इसी तरह परिवर्तन होता हैं। जिस शब्द को हम पहले 'पृष्ठ' बोलते थे, उसे हिन्दी में आज 'पीठ' बोलते हैं। देश, काल तथा अन्य ऐसे हो कारणों से शब्द में जो परिवर्तन होता है, अर्थ में जो विकास होता है, उसी के विचार को 'निरुक्त' कहते हैं। पात्र- भेद से जो शब्द-भेद होता है, उस पर यहाँ विचार नहीं होता । छोटा बच्चा 'सब' को 'छब' कहता है और 'रोटी' को 'लोती' कहता है; पर यह शब्द-भेद 'भापा का विकास नहीं कहला सकता और इसीलिए निरुक्त में इस श्रेणी के शब्दों पर विचार नहीं किया जाता । कारण,