हिन्दी को गन्दुम' का गन्द' अच्छा न लगा। विस्तार भी पसन्द न
आया। इसने 'गोधम' के 'द् का लोप कर दिया और 'म को
अनुनासिक-रूप से ग्रहण किया---गोहूँ । यही गोहूँ फिर गेहूँ वन
गया। कितना सक्षेप ! आपको यह देखकर आश्चर्य हुआ होगा कि
पुं-विभक्ति के क्षेत्र में तो बैल चलता है और जहाँ उस (पुं-विभक्ति)
का साम्राज्य नहीं, वहां 'बरधा चलता है। परन्तु यह व्यवस्थित
चीज़ है। संस्कृत 'बलीवर्दः' में विसर्गों का प्रयोग तो अन्त में ही है
न? विसर्गों का ही विकास 'आ' विभक्ति है। सो ‘वर्द.' का अश
'बरधा' है; 'अ हटाकर 'वर' भी। बली' अंश तो विसर्ग-शून्य है
और इसीलिए 'बैल' हुआ, 'बला' नहीं।
__ जैसे 'बलीवर्द' से दो शब्द बन गये: उसो तरह कभी-कभी दो
(अपने ही) शब्दों से भी हिन्दी एक शब्द बनाती है। हिन्दी का
'लगभग' अव्यय बहुत प्रसिद्ध है। 'लगना क्रिया है। भागना' या
'भगना' भी क्रिया है। 'लगना' के साथ 'भगना' जमता है, 'भागना'
नहीं। 'लग कर-चिमट कर, एक होकर । 'भाग कर' या 'मग कर'-
दूर हटकर । 'लगने' और 'भागने' के बीच में है—'समीप रहना।
बहुत समीप । 'लगभग एक हजार आदमी उस मुशायरे में थे'---
अर्थात् एक हजार के समीप, कुछ इधर या उधर । 'एक हजार' संख्या
'आदमी' से बिलकुल लगी हुई नहीं है-निश्चित रूप से एक हजार
नहीं। परन्तु 'भागी हुई' भी नहीं है । समीप है । या यों कहें कि लगी
भी है और भगी (भागी) भी है। यों 'करीब-करीब' है।
'लग कर' काम करो---जुट कर । यह 'जुट' 'जुड़ का विकास
विशेष अर्थ में । 'जुड़कर' से वह अर्थ नहीं निकलता । 'जोड़' योग ।
'योग' का संस्कृत में अर्थ 'युक्ति' भी-योगः कर्मसु कौशलम्' काम
करने के कौशल को 'योग' या 'युक्ति' कहते हैं। योग-तदाकार हो
जाना, लौलोन हो जाना, जुड़ जाना। लगन के साथ' में यही है । इसे
'लग्न के साथ' लिखना गलत है। 'लग्न-मुहूर्त' अलग है।
बनी-बनायी दाल' को संस्कृत में 'सूप' कहते हैं। कैसा सुन्दर
गोल-मटोल शब्द है; हिन्दी के योग्य ! परन्तु जनभाया ने इसे ग्रहण
नहीं किया। लोग 'दाल से रोटी खाते हैं, 'म' से नहीं । संस्कल शर्प'
का विकास हिन्दी में 'सूर' हुआ, तब दाल के लिए 'सूप' कैसे चलता?
'द्विदल' को दल कर 'द्वि' का छिलका अलग कर दिया गया और फिर
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हिन्दी-निरुक्त : ७३