पृष्ठ:हिन्दी निरुक्त.pdf/७३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
हिन्दी-निरुक्त : ७५
 

हो ? इसके लिए "भुस का स्त्रीलिंग रूप 'भूती बनाया गया । 'भूसों-तुष, चोकर। इस तरह उभयत्र शब्द-भेद से अर्थ-स्पष्टता हिन्दी ने रखी। विभक्ति लगाकर भी शब्द-भेद है—लेख-लेखा ! ३१-विकास का कारण असमर्थता नहीं हिन्दी में शब्द-विकास का कारण संक्षेप. सौकर्य्य तथा सौष्ठव की ओर प्रवृत्ति ही है, उच्चारण-अशक्ति नहीं। हिन्दी में 'स' का सही उच्चारण न हो पाता हो, ऐसा नहीं है । यहाँ तो 'स' इतना चलता है कि संस्कृत शब्दों के 'श' तथा 'पको भी 'स' प्रायः वन जाना पड़ता है ! फिर भी 'स' का कहीं-कहीं 'छ' होते देखा गया है। पञ्चाधिक और घट्-न्यून संख्या के लिए संस्कृत में 'षष' शब्द है. जो पट् आदि रूपों में चलता है। हिन्दी ने इस शब्द को स्वरान्त करके ग्रहण किया- 'षष। फिर हो गया-सस' । 'दश' का जैसे 'दस और 'शिर' का 'सिर । सस' मजे से चल सकता था । फारसी में यही 'शश' गया है-'शशमाही'-छमाही- फारसी में एक जानवर को 'खरगोश' कहते हैं, जिसे संस्कृत में 'शश' या 'शशक'। इसलिए वहाँ इस संख्या-वाचक 'शश' का चलन ठीक है। परन्तु हिन्दी में उस प्राणी को 'सस' और 'ससा' भी कहते हैं। 'शश' का रूप 'सस' और पुं-विभक्ति लगाकर 'ससा'--'ससा की बारी'। ऐसी दशा में संख्या-वाचक 'सस'ठीक न समझा गया। अन्त्य 'स' को 'ह' कर के 'सह' चलाना भी ठीक न था। एक खेल का 'शह' यहाँ 'सह' बन चुका था, वोल-चाल में था। 'हस तो बहुत भद्दा रहता। हिन्दी प्रारम्भ में 'स' को 'ह' पसन्द ही नहीं करती। 'सत्तर' का 'हत्तर नहीं होता; हाँ 'बहत्तर' 'तिहत्तर हो जाता है। सो, 'हस भी न हो सका। तब क्या हो? 'स' को बच्चे 'छ' बोल देते हैं । स्वाभाविक प्रवृत्ति है। इसी प्रवृत्ति को ले कर 'स' के प्रयम 'स' को छ' कर दिया और तब द्वितीय ' सह' बन गया-छह । अर्थात् 'स' को 'छ' इसलिए न समझिए कि हिन्दी-भाषी म बोल नहीं सकते; प्रत्युत इसलिए कि असन्दिग्धता लाने के लिए वह जरूरी था। कभी-कभी अपनी पुं-विभक्ति का प्रयोग कर के भी हिन्दी ने अर्थान्तर में काम चलाया है। 'रस' शब्द का व्यवहार हिन्दी में भी उसी अर्थ में होता है, जिस अर्थ में संस्कृत में। परन्तु 'आ' विभक्ति