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७६ : हिन्दी-निरुक्त
 

लगाकर ('रसा' बनाकर) अर्थान्तर में इसका प्रयोग होता है। 'आलू हमें पचते नहीं, रसा से ही रोटी खा लेंगे।' यों संस्कृत का 'यूष' शब्द जहाँ व्यवहत होता है, वहाँ हिन्दी 'रसा' चलाती है । 'रसा' भी एक तरह का रस ही है; पर बहुत अन्तर है 'रस' और 'रसा' में । 'यूष' का 'जूस बना कर हिन्दी ने काम लेना ठीक न समझा । 'रस' तथा 'रसा' में जो शब्द-साम्य है, वह 'रस' और 'जूस' में कहाँ है ? । ___ 'भाण्ड' (वर्तन) का 'भाँड' हिन्दी ने नहीं बनाया; क्योंकि नक्काल लोगों के लिए 'भाँड़ चल रहा था। हाँ, 'भाँडा' या 'भाँड़ा' का प्रयोग जरूर होता है; पर 'बर्तन' के साथ और प्रायः बहुवचन में ही- वर्तन-भाँड़े। कहीं स्वतंत्र रीति से भी-कपट-कलेवर कलिमल भाँड़े, चलत कुपन्थ वेद-मग छाँड़े।' 'भण्डिका' का 'हँड़िया' बना और 'भैडिया भी। आद्य व्यंजन का स्वर ह्रस्व हो गया; 'भ' के 'ब्' का वैकल्पिक लोप । 'इका' का 'इआ' और 'इय्' आदेश । 'ण' अनुस्वार बन गया। परन्तु 'भांडा' या 'भाँडा' में 'ब' का लोप नहीं होता। हाँड़ा' अच्छा नहीं लगता । 'हाड़ का ख्याल आता है। 'हंडा' जरूर चलता सारांश यह कि हिन्दी ने शब्द-विकास की धारा में सदा स्पष्टता, असन्दिग्धता, सरलता, मधुरता तथा संक्षेप-प्रियता को पसन्द किया है। आश्चर्य है, साधारण जनता में विकसित भाषा का प्रवाह इतना वैज्ञानिक तथा सुव्यवस्थित है ! ३२--अनेकधा विकास हिन्दी ने किसी-किसी शब्द का प्रत्यर्थ अनेकधा विकास किया है। संस्कृत का वत्स शब्द हिन्दी ने मूल अर्थ में 'बच्छ' करके लिया । पुं-विभक्ति लगकर 'वच्छा' और 'र' का आगम करके तथा को हटाकर 'बछरा' हुआ। 'र' का वैकल्पिक 'ड' कर के 'बछड़ा' भी । __ वेदों में 'गौ के वाद जिस प्राणी को सर्वाधिक महत्त्व दिया गया हैं, वह है घोड़ा { घोड़े के बच्चे को 'बछेड़ा' कहते हैं । यह उसी(वत्स) शब्द का दूसरा विकास है । शेष सबके लिए 'बच्चा बना । 'वत्स' का ही वच्चा भी, पु-विभक्ति लगाकर । वर्ण-विकार स्पष्ट है । सो, एक "वत्स' से बछड़ा, बछेड़ा और बच्चा ये तीन रूप अर्थ-भेद से हिन्दी ने कर लिये । भैंस के बच्चे में भी कुछ विशेषता देखकर उसे 'पड़ा'