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हिन्दी भाषा की उत्पत्ति।


हिन्दी में एक बड़ा भारी दोष इस समय यह घुस रहा है कि उसमें अनावश्यक संस्कृत शब्दों की भरमार की जाती है। इसका उल्लेख हम एक जगह पहले भी कर आये हैं। इससे हिन्दी और उर्दू का अन्तर बढ़ता जाता है, यह न हो तो अच्छा। इन प्रान्तों की गवर्नमेंट ने बड़ा अच्छा काम किया जो प्रारम्भिक शिक्षा की पाठ्य-पुस्तकों की भाषा एक कर दी। उर्दू और हिन्दी दोनों में उसने कुछ फर्क नहीं रक्खा। फ़र्क सिर्फ़ लिपि का रक्खा है। अर्थात् कुछ पुस्तकें फ़ारसी लिपि में छापी जाती हैं, कुछ नागरी में। यदि हम लोग हिन्दी में संस्कृत के और मुसल्मान उर्दू में अरबी-फ़ारसी के शब्द कम लिखें तो दोनों भाषाओं में बहुत थोड़ा भेद रह जाय और सम्भव है, किसी दिन दोनों समुदायों की लिपि और भाषा एक हो जाय। इससे यह मतलब नहीं कि संस्कृत कोई न पढ़े। नहीं, हिन्दू और मुसल्मान जो चाहें शौक से संस्कृत, अरबी और फ़ारसी पढ़ सकते हैं। पर समाचार-पत्रों, मासिक पुस्तकों और सर्वसाधारण के लिए उपयोगी पुस्तकों में जहाँ तक संस्कृत और अरबी-फ़ारसी के शब्दों का कम प्रयोग हो अच्छा है। इससे पढ़ने और समझनेवालों की संख्या बढ़ जायगी जिससे बहुत लाभ होगा।

पद्य

"हिन्दुस्तानी,” अर्थात् वर्तमान बोल-चाल की भाषा, के सबसे पुराने नमूने उर्दू की कविता में पाये जाते हैं। उर्दू क्यों उसे रेख्त़़ा कहना चाहिए। सोलहवीं सदी के अन्त में इसी भाषा में कविता होगे लगी। दक्षिण में इस कविता का