पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टम भाग.djvu/१३६

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· नलपाईगुडो - १०८० ई.में देघराजको पुनः पाईनकाल काटा और | लिए उन्होंने चगडोका पूजा करना.शक. कर दिया। उन- जस्पेशा मिल गया। इस तरह विस्टत वैकुण्ठपुर राज्य को इच्छा थी, भतीजेको हो देवोके मामने वलि दें, धीरे धोरे शुद्रातयन हो गया। इस सयय रायकीको किन्तु उनकी दुरभिसन्धि प्रगट हो गई। धानो मार २८३३४१) रुपया करस्वरूप देना पड़ता था, किन्तु सर्व देवको गुमरीतिमे रापुर ले गई और यहां उसने देवराजको कुछ स्थान दे देने के कारण राजस्व घटा कलकर साइबमे सब बात कह दो। कलकर साहबने कर १८८८०) कर दिया गया। पीछे १७३ ५०में शोध हो प्रतापदेवको हाजिर होने के लिये आदेश दिया। १८ ०१) निहारित हुआ, दूसरे वर्ष इससे भी ३२३८) । धत प्रतापने कलकर माहब के पास पहुंच कर सम दोप क घटा दिये गये। इसके बाद फिर गवमें एटने ६२३३)। अपने दोवान रामानन्द शर्माका बतलाया । रामानन्द रु.बढ़ा दिये। परन्तु इसका कुछ कारण नहीं मालूम कैद कर लिए गये। पड़ा। ८१२१ में सर्व देवनं रायवात पद पाया। इसके दर्प देव मिफ य विग्रह और राजनैतिक गड़बड़ीमें | कुछ दिन बाद ही प्रतापदेवने रायकत पद पानिके लिए हो व्यस्त थे, ऐसा नहीं। उससे पहले यहां कामरूपो| दीवानो अदालत में मुकदमा चलाया, पर वे हार गये। ब्राह्मणों के सिवा और किसो ब्राह्मणका घास न था। सर्वदेव बुद्धिमान और बहुत चतुर थे। रायकत होनेके दर्प देवने योक्षेत्रसे कुछ पण्डोको ला कर अपने राज्यने । बाद जब उन्हें मालूम हुआ कि उनके पिवराज्यशा बमाया। जिप्त ग्राममें वे रहते थे उसका नाम "पगडा अधिकांश हो देवराजने हस्तगत कर लिया है, तब उन्हें पड़ा" पड़ा। उता पण्डोंकि अधर अब भो उक्त गांवमें | उसके उहारको शुभो। उन्होंने बहुतसी सेना इकट्ठी कर १८२४ ई में देवराजले युद्ध ठान दिया। एक वर्षमें १७८३ ई में दर्प देवकी मृतर हो गई। उनके बाद ही उन्होंने देवराज हारा अधिकृत समस्त स्थानों पर जाष्ठ पुत्र जयन्तदेव रायकन हुए। जयन्त बहुत ही। अधिकार कर लिया। देवराजने इटिश गवम एके निष्ठावान धार्मिक ये, उनका अधिकांश समय देवपूजामें समक्ष इम विषयका अभियोग उपस्थित किया । गव. व्यतीत होता था। उनके समयमें देवराजने आमानीने } में टको मिना पाज्ञा के इनके मित्रराजमे युद्ध करने के 'पठिाकाटा' आदि कई एका स्थानों पर कना कर लिया। अपराधसे मर्व देयको ७ वर्ष की सभा हुई। अपील हुई। जयन्तदेवने उनके उद्धारको लिए कुछ भी प्रयत्न नहीं | अपील में उनके लिए ३ वर्ष की सजाका हुक्म हुआ। रणपुरके किया। पहले वैकुण्ठपुर नामक स्थानमें हो राजधानी एक पृथक् मकानमें उन्हें तीन वर्ष रहना पड़ा। मुक्ति श्री, जयन्तदेव वहांसे राजधानी उठा कर जलपाईगुड़ी पानेके बाद उन्होंने राजनैतिक चर्चा शिल्क न ही शेड़ ले पाये। जलपाईगुड़ोमे जो राज-प्रासाद है, उसके दो, मदा धर्म चर्चा करने लगे। इस समय उनको पशिममें करला नदी और पूर्व, दक्षिण एवं उत्तरमें | सभामें बहुत से ग्रामण पण्डित उपस्थित रहते थे। जयन्त- परिखा है। परिखाके उत्तर और दक्षिण वाहुदय करला | देवने जलपाईगुड़ी में परिता प्रादि खुदवाई थी, शित नदीमें जा मिले हैं। राजधानोको देखनेमे यही कहना अट्टालिका, दौधि का और मन्दिर सर्व देयके समयमै हो पता है कि वह खूब सुरक्षित है। बने थे। १८.८ में जयन्तदेवकी मृत्यु हो गई। उस समय १८४७ में सर्व देवकी मता हो गई। इनके दग उनके पुत्र सर्व देनको उमर पांच वर्ष की थी। इसलिए पुत्र थे, जिनमें मकरन्ददेव भबसे बड़े थे। सर्वदेवको जयन्तके भाई प्रतापदेव हो राजकार्य चलाने लगे। उनके मुताके बाद मन्त्रियोंने षड़यन्त्र कर नाबालिग राजेन्द्र गासनमें अंग्रेज भी सन्तुष्ट हुए थे। किन्तु भतीजेको देवको रायकत पद पर अभिषित किया । कुमार मक- मार फार निर्विन राञ्चसुग्न गोगनेको लिसाने उनका रन्ददेव वारे मराइन्नघाट पहुंचे और जमोदारो पनि जदय पधिकार कर लिए। 'पने अभीष्टकी सिद्धिक लिए उन्होंने नानिश की। मुकदमा जीत गये। १८४८