पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टम भाग.djvu/२०

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जन्मास्पद-जप जन्मास्पद (सं० ली.) जन्मस्थान, जन्मभूमि। । उच्चारण। अग्निपुराण और तन्मसारमें लिखा है- अग्मिन् ( स० ० )१ पाणी, जीव । (वि०) २ जो निर्जन स्थानमें समाहित चिप्समे देवताको चिन्ता कर

उत्पन हुपा हो।

जप करना पड़ता है। जपकालमें विन्मून त्याग करने जन्मेजय (म. पु. ) जनमेजय राजा। देवोभागवतके किवा भयविदल होनेसे वह बिगड़ जाता है। मलिन २२११३३६ नोकको टीकामें लिखा है- वेश अथवा दुर्गन्धियुक्ता मुखसे जप करने पर देवताकी "जम्मनैदातिशुदन श नेजितवान् यतः। प्रोति नहीं होती। जपकान्नमें आलस्य, जुमा, निद्रा, एजसम्पने धातोहिं जन्मेजय इति श्रुतः॥" • कास, निष्ठीवन त्याग, कोप और नोच अङ्गका स्पर्श जनमेजय देखो। सम्पूर्ण रूपसे परिहार करना चाहिये। जम्मेश (सं० पु०) जन्मराधिका स्वामी। जन्मप देखो। अप तीन प्रकारका हे-मानस जप, उपाए जप जन्य ( स० क्लो.) जन-प्यत्। ११, हाट, बाजार। और वाचिक जप । मन्वार्थ सोच कर मन ही मन २ परिवाद, निन्दा। ३ संग्राम, युद्ध, लड़ाई। (पु.)। उमको उच्चारण करने का नाम मानस जप है। देवताका ४ उत्पादक, जनक, पिता । ५ महादेव, थिय । "वमतेजा चिन्तयन कर जिला और दोनों' पीठो को सूक्ष्मतया .' महावेगा जन्मो विजयकालवित् ।"(भारत १९१५)।६ देकर हिलाते हुए किश्चित् यवणयोग्य जो जप किया जाता है भरोर ७ जनजल्प । जल देखो । ८ किंवदन्तो, प्रवाह। वह उपांश कहलाता है । वाक्य द्वारा मन्त्र उच्चारण .. (त्रि.) उत्याध, उत्ताव करने योग्य । १० जनयिता, जप करनेको वाचिक कहते हैं। सिवा इसके • उत्पादक, जन्म देनेवाला । ११ जातीय, टेशिक, दूसरा मो एक जप है । उसको जिहाजप कहा • 'राष्ट्रीय । १२ जनहिन, मनुष्यों का हितकर । १३ जन जाता है। यह जप वल नीमसे ही करना पड़ता है। सम्बन्धी । १४ उत, जी उत्पन्न हुआ हो। (पु.) १५ वाचिकमे उपांशु दशगुण, जिन्सानप शतगुण और नवोढ़ाके भृत्य, नवविवाहिताके नौकर । १६ नवविवा. मानस सहस्रगुण श्रेष्ठ है। जप करते करते इसकी हिताके माति, भाईबन्ध. बांधव। १० नमविवाहिता. गणना करना उचित है, कितना नप हो गया। इसीके के मित्र ! १८ नवविवाहिताके प्रिय जन । १९ जामाता, लिये जपमानाका प्रयोजन पड़ता है। जपमाला देडरे ।

दामाद । २० इतर लोक, जनसाधारण, साधारण मनुष्य अक्षत, इस्तपर्व, धान्य, पुष्प, चन्दन किवा मृत्तिकासे
२१ मनन, जन्म, पैदाइश । २२ बराती। २३ वरके | जपकी संख्या ठहराना निषिद है। लाक्षा या गोमय
प्रिय जन, वरपक्षके लोग। २४ जाति । २५ वर, टूलह। द्वारा जप गिननेका विधान है । ( तन्त्रसार ) .

'२६ पुत्र, बेटा। . . . . __कुलाण चतन्त्रक मससे उच्च स्वरका जप अधम, जन्यता (स' स्त्री०) नन्य तल टाप । उत्पाद्यता, जन्म उपाश मध्यम और मानस उत्तम-जैसा होता है। जप • होनेका भाव। अति इस्व होनेसे रोग बढ़ता और बहुत दोघं पड़नसे जन्या (स. स्त्री०) जन्य-टाप,। १ माताको सखो। २ तप: घटता है। मन्त्रका अर्थ, मनच तन्य और योनि- 'मोति, मेह, प्रेम । ३ बध को सहेलो। ४ बधू । . मुद्रा न समझनेसे शतकोटि .जपसे भी क्या कोई. फल जन्य, (म: पु०) जन-युच् बाहुलकात् न अनादेशः । मिलता है। मिया इसके गुप्तवीर्य अथवा अचेतन्य मन्त्र १ अग्नि। २ अधा, विधाता। ३ प्राणी, जन्तु, जीव ।। भी निष्फल है, चैतन्ययुक्ता मन्त्र ही सर्व मिहिकर होता ४ जनम, उत्पत्ति । हरिवशक अनुमार चौथे मन्वन्तर है। पैतन्ययुक्त मन्त्र एकबार जप करने से जो फल

समर्षियों मेमे एक ऋषिका नाम! . . मिलता, पचैतन्य मन्त्र के यत सहस्रः अथवा लक्ष,जपमै

जप (सवि.) जप-कर्तरि भच । १ जपकारक जप) भी यह दुर्लभ है। चैतन्ययुक्त मन्त्र . सर्व सिहतर है।

करनेवाला । ( मटि (पु.) भावे अप । २ पाठ, अध्य- चतन्ययुक्ता मन्त्रका एक बार जप करनेसे जो फम्न मिलता

.: यन । २ मन्त्र आदिफी पाहत्ति, मन्वादिका मुन: पुनः है, मचैतन्य मन्त्रका हजार या लाख बार जप करने