पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टम भाग.djvu/२३४

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नाति २०८ शौचाचारस्थित: सम्यग् ब्रह्मनिष्ठः गुरुपियः । और तोरण हो कर अपना धर्म त्याग दिया है, ये क्षत्रिय निसबती सत्यपरः च वै ब्राह्मण उच्यते । हैं, जिन्होंने रज: और तमोगुणा के प्रभावसे परापालन और सायं दानमयो द्रोह आनृशस्य प्रपा पृणा। रुषिकार्य का अवलम्बन किया है वे घम्स है और तपश्च यते यत्र स ब्राह्मण इति स्पृतः । तमोगुण के प्रभावसे हिंसा पर, सुम्य, मर्व कर्मोपनोवी. क्षेत्र सेवते कर्म वेदाप्पयनसंगतः। मिथ्यावादी और शौचभ्रष्ट हो गये हैं, वे हो गत्वको दानादानरतिर्यस्तु स वै क्षत्रिय उच्यते । प्राप हुए हैं। ब्राह्मणों ने इस प्रकार भिन्न भिन्न विशत्याशु पशुपश्च कृष्यादानाति: शुचिः। कायों के द्वारा हो पृथक् पृथक वर्ण पाये हैं। पतएव सभी वेदाध्ययनसम्मनः सवेश्यः इति संगिताः ।। वर्णको नित्य धर्म पौर नित्य यन्त्र करने का पधिकार सर्वमश्यरतिनिय सर्वकर्मकरोऽशुचिः। है। पहले भगवान ब्रह्मान जिनको सृष्टि कर फेंदमय त्यवेदालनाचार: राधै शूद इति स्मृतः ॥ याक्य पर पधिकार दिया था, वे ही सोमके वशीभूत हो शूद्र चैतद्भवेल द्विजे तच्च न विद्यते । कर श दत्वको प्राप्त हुए हैं। म चै दादो मवेच्छूदो याहयो बाह्मणो न च ॥" माझपगण सर्वदा वेदाध्ययन तथा नत पौर भगवान महाने पहले अपने तेजसे भास्कर और नियमानुठानमें अनुर रहते है, रसोलिए तपस्या

अनलके ममान प्रतिभाशाली ब्रह्मनिष्ठ मरोचि आदि | नट नहीं होती । मानणों में जो परमार्थ प्रद्यपदार्थको

प्रजापतियोंकी मुष्टि कर, स्वर्ग प्रामिके उपाय स्वरूप | नहीं समझ पाते वे पति निशष्ट गिने जाते हैं पोर सत्य, धर्म, तपस्या, माखत वेद, पाचार और शोचको। ज्ञानविज्ञानहोन स्वेच्छाचारपरायण पिशाच, राक्षम, सष्टि को पीछे देव, दानव, गन्धर्व, दैत्य, असुर, यक्ष, और प्रेत आदि विविध म्लेच्छजासित्व को प्राप्त राझम, नाग, विशाच तथा ग्रामए, नविय, वैश्य और होते हैं। शू टू इन चार प्रकारको मनुष्य जातिको सृष्टि दुई। भरद्वाजने कहा- विजोत्तम ! ब्राह्मण, क्षत्रिय, उमममय ब्राह्मणों को तवणं ( अर्थात् सत्व गुण), वैश्य पोर शूटू इन चार वर्णका लक्षण क्या है। सोम नधियों को लोहितवर्ण (अर्थात् रजोगुण ), वैश्यों को बतलाइये ? भृगुने उत्तर दिया-ओ जातकर्मादि संस्कार पोतवर्ण ( भर्थात् रज और तमोगुण) पोर शद्रोको | मे संस्कृत हैं, जो परम पवित पोर वेदाध्ययनमें परत कणवर्ण अर्थात् निरवच्छिन तमोगुण प्राप्त हुपा। होकर प्रति दिन सन्ध्यावन्दन, मान, तप, होम, देवपूजा, भरद्वाजने कहा-राजन् ! यो तो सभी मनुष्यों मह पतिथिसत्कार इन षट्कर्मों का पनुष्ठान करते है, भो तरहके वर्ण विद्यमान है। इसलिए मिर्फ वर्प ( वा गुण), जौचाचारपरायण, नित्यमद्यनिष्ठ, गुरुप्रिय और मत्यनिरत को देख कर ही मनुष्यों में वर्ण भेद नहीं किया जा हो कर मायका मुक्तावगिष्ट पव मषण करते हैं, पोर सकता । देखिये, मभी लोग काम, क्रोध, भय, लोभ. ! जिन्हें दान, पद्रोह, पन्यता, चमा, राणा पोर तप. गोक, चिन्ता, क्षधा और परिश्रममे व्याकुल होते हैं तथा| स्था अत्यन्त पास पाया जाय, वही बाप है। जो सभी गरीरमे मल, मूत्र, स्वेद, दमा, पिस और वेदाध्ययन, युबकार्यघा पनुष्ठान, मानणों को धन दान गोणित निकला करता है। ऐसो दणाम गुण के द्वारा किम पौर प्रजापो के पाससे कर वमन करते हैं, वे जातिय, मकार वर्णविभाग किया जा सकता है? भृगुने उत्तर जो पवित्र हो कर येदाध्ययन पोर सपि वापिन्य पादि दिया-इलोको यस्तुनः वर्ण हा मामान्य विशेष नहीं! करते , वे ग्य. तया जो वेददोन पौर प्राचारघट है। समस्त जगत् ही ग्राममय है। मनुष्यगण पहले हो कर मयंदा ममम्त कार्यो का अनुष्ठान पोर मर्द बन बधा हारा सट हो कर कमग: कार्यके अनुमार भित्र भक्षण करते . ये हो गूद्र है। यदि कोई व्यधिप्रामप.. मिन्न यी में परिगदिम हुए हैं। जिन ब्राह्मणों ने ! कुनमें जन्म से कर गद्रीकी मांति व्यवहार करें, तो धमें रजोगुपके प्रभावी कामभोगप्रिय, क्रोधधरतन्य, माइमो । पद और यदि कोई मद्रय गर्ने सन्म से कर मामलों की Vol.VIII, 53