पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टम भाग.djvu/३५४

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- जिनसेन प्राचार्य - जिनका कि स्वामी जिनमेनन उमेख किया है, वहिक पति ध्रुवने वत्सराजको मोडामावमे पराजित कर दिया उनके पितामह योवलभ-जिनका दूमरा नाम प्रमोघवर्ष | और उनके प्रकारको चूर्ण कर रहे तशवरे साथ साथ भी था। उनके शिष्य थे। क्योंकि राष्ट्रकूटय योय राज ] दिगन्तव्यायो यग भो छोन लिया, जिममे उन्हें मारवाड़में गण कई नामो से प्रसिद्ध हुए हैं। उनमें कर्कराजके बाद जा अपने प्राण बचाने पड़े। कर्णराजके (फसं० ७३४) जितने राजा सिंहासनारूढ हुए हैं। प्रायः सबको 'वर्ष' ताम्रलेखमें लिखा है कि उक्त राष्ट्र फूटव गोय गोविन्दने उपाधि थी। तथा गौड़ेन्ट्र और बङ्गपति विजेता गुजरेन्द्रने यसराज. राष्ट्रफूटवंशके पतिगण कितना और किस रूपमें | को पराजित कर अपने छोटे भाई इन्द्रराजको मालय में जैनधर्म का समादर करते थे ; यह बात जिनमेमाचार्य | प्रतिठित किया। Amनियामकोटवनमे प्रली तर उक्त समसामयिकलिपिके प्रमाणसे जान पड़ता है माल म हो सकता है। 'विहनमाला के प्रथम भागमें | कि शकस. ७३४के पहिले मालव पति वत्सराजने समस्त सबमे पहिले इसी विषयको यथोचित अालोचना हुई है। प्राच्य भारत में अपना अधिकार कर लिया था एवं जिन- अत: इस जगह उसका वर्णन करना हम निष्प योजन सेनोज शकम० ७०५में वे प्रवन्तिसे ले कर पङ्ग पर्यन्त समझते हैं। समम्त पूर्व भारतके अधोवर थे। जिनसेनाचार्यने जिन अब हम अपने पालोच्य हरिवंशपुराणके कर्ता जिन- | वोरवराहका उल्लेख किया है, वे कन्नोज भावो गुर्जर मेनाचार्य ने विशेष रोतिसे जिस जिम प्रचलित इतिहतका राजवंश के प्रतिष्ठाता संपसिंह गुर्जरपति ही हैं। जिनः कामीका परिचय देते हैं। पहिले हम सेनझे समय पथिम भारतमें उनका अभ्यू दय हुपा था, हरियशकी रचनाममयज्ञापक भोकोको उहत करते | इमलिये जिनमेनके हरिव शर्म हम जो धार मम्राटीका समय लिख पाये हैं कि शकम०७०५में, (७८३-७८४ पनुसन्धान पाते हैं यह सत्व है। ई० में) उत्तर-भारतमें इन्द्रायुध दक्षिण कृष्णराजका पुत्र मके सिवा उन्होंने हरियशके अन्तिम भाग भविष्य (राष्ट्रयूटय गीय ) योवलम, पूर्व में भवन्तिपति वासरान राज्यपके प्रसासे नोचे लिखे अनुसार कितने ही और पथिममें सौर्यदेशक अधिपति वोर-वराह राज्य करते | राजाओं का भी परिचय दिया है। थे, अर्थात् ये चार राजा को उस समय समय भारत- "वारनियाणकाले च पालकोऽत्राभिषिक्ष्यते । वर्ष राजाधिराजकै नाममे प्रसिद्ध थे। अब देग्नुमा लोकेऽवंतिसुतो राजा प्रजानां प्रतिगाल चाहिये कि जिनसेनाचार्यका यह कयन कहां तक षष्टियपाणि सदाग्यं ततो विजयम्भुआ। रहात है। वातंच पंच पंचाशत् वपाणि तदुदीरितं ।। ' वास्तव में सप्तर-भारतके इतिहास और प्रभावकारित चत्वारिपात् पुस्तानो भूमंडलमर्सडितं। प्रभृति जैनग्रंथोंके देखनसे मात म होता है कि इन्द्रा. शिरतु पुष्पमित्रागा पयित्वग्निमित्रयोः । युधने चक्रायुधको राज्यथ त कर कमीजका सिंहासन शतं रासमराजाना नरबाइनमप्यतः। अधिकार किया था। इधर राष्ट्रकूटव गोय कणराजके चत्वारिंशत्ततोद्वाभ्यां चरसारिशरतयं ।। पुत्र श्य गोविन्द योवशम मान्यखेट नगरमें राजधानी माणस्य तदाज्यं गुप्तानां च शतस्य । स्थापन कर दक्षिणया शासन करते थे। श्य गोविन्द के एकविंशय पौगि कालगिदिदाता दो तानशामनोंगे शास भा है कि वत्सराज गौड़देशके | चिस्पारिशदेवातः कहिराग्यस्थ रामता। जीतने से अपने पराकममें मत्त थे और गौड़राजके मत ततोऽनितंभयो राना स्थानिपुरस्थितः" ।८७.९२५ 'छत्रको ग्रहण कर बैठे थे। ३य गोविन्द पिता राष्ट्रकूट उद्धत शोको के अनुमार वोरनिर्वाण मय यति

  • सकता प्रकाशित 'हरिवंशपुराग'की प्रस्तावनामें हम के सिंहासन पर पानक राजाका अभिपेकपा था इम

' तालिका प्रगर कर पुके हैं।' वंसने ६० वर्ष, विजय (नन्द) व गर्ने १५५ वर्ष पुरुद-