पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टम भाग.djvu/४००

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नौवात्मा इस प्रकारको प्रतीति सभी लोगोंको हो रही है, तब यह नयन प्रादि वरूप इन्द्रियों को मारमा फहमा नितान्त स्पष्ट हो मालूम हो रहा है कि, शरीर और इन्द्रियों मे | भ्रम है। क्योंकि यदि पशु आदि इन्द्रिय स्वरूप ही पारमा भिन्न है । ( मायाप० ५० ) श्रात्माके दो भेद हैं प्रात्मा होती, तो 'मैं चाहूं' इत्यादिका व्यवहार होता एक जीवात्मा और दूसरा परमात्मा । मनुष्य, फीट, | और चतु श्रादि इन्द्रियों३ नष्ट होनेसे घामाका भो पतङ्ग आदि जितने भी प्राणी देखने पाते हैं, वे मत्र नाग हो जाता। जिस तरह दूारे पादमी को देखी हुई ही जीवात्मा है। परमात्मा एकमात्र परमेश्वर हैं। जो चीजका दूसरा भादगो स्मरण नहीं वार सकता, उसो सुख दुःख पादिका अनुभव करते हैं, ये हो जीवात्मा तरह चल से नट हो जाने पर पहले के देखे हुए पदार्थी- कहलाते हैं ; इस जीवात्माकै गुण १४ हैं- बुद्धि, मुगु, का किमोको भी मरण नहीं रहता। दुःख, पछा, प, यन, संख्या, परिमिति, पृथक्त्व, | ___मैं गोराई, में काला ई. में मोटा हूं. मैं दुबला हूं संयोग, विभाग, चिन्ता. धर्म और अधर्म । इत्यादि व्यवहार हो रहा है, इसलिए शरीरको 'मैं पामा (भाषाप० ३२) कहना स्य लदर्शिताका कार्य समझना चाहिये। जीवामा में जो जो गुण हैं, परमात्मामें भो प्राय: वे | कारण यह है कि, यदि शरोर हो पात्मा होता, तो कोई गुण मौजूद है। केवल वेप, सुख, दुःख, चिन्ता, धर्म | भो व्यक्ति धर्म ग्रोर पधर्म का फल स्वरूप स्वर्ग और नरक और अधर्म नहीं हैं। परमात्माके ज्ञान, इच्छा, यत्र नहीं भोगता ; क्योंकि शरीरके विनष्ट होते ही पात्माका आदि कई एक गुण नित्य है। भी नाग हो जाता, फिर स्वर्ग और नरक भोगता हो जीवाम्माके अतिरिक्त एक परमेश्वर भी हैं, इस | कौन ? स्वर्ग या नरक पादिको वेबुनियाद ही कैमे कहा विषयमें शास्त्रकारोंने बहुत प्रमाण दिये हैं। यहां कुछ । भा मकता है। क्योंकि यदि ऐसा ही होता तो कोई भी प्रमाण लिखे जाते हैं। व्यक्ति शारीरिक तथ घोर अर्थ व्यय करके यज्ञादि रूप इस जगत्में जितने भी पदार्थ देखने में पाते हैं, उनके धर्म कर्म नहीं करता और न परदार प्रादि निपिड की. एक न एक कर्ता है। कर्ताके बिना कोई काम नहीं | से निवृत्त ही होता ; वल्कि ऐहिक सुखी प्रतिभापामे होता। जैसे-घटको देखते ही ममझना होगा कि, इम प्रहत्त होनेकी ही सम्भावना थी। और भी जरा का की एक कुम्भकार है। अगम्य परयस्य हमादि | विचार कर देखिये, यदि गरीर हो प्रारमा होता, भी कार्य है, उनका भी पार्टी है। परन्तु उस विषयमें । तो मध्यप्रसून बालकको , गोक, भय पादिवा माग कर्तव नहीं मालूम होता, कोंकि वह हमस्तन्यपानादिम प्रशक्ति नहीं होतो। कयों कि उम ममय मोगोंका जाना नहीं होता। इमलिए वहांक स्थावर उस वालकको रुपं विपादादिका कुछ कारण नहीं चौरन पादिके कर्ता एक पसाधारण गतिमम्पन परमेश्वर हैं, उमे यह ही मान्न म है शि, स्तनों के पोने में भाकी इसमें सन्देह नहीं हो मकता। (मुक्तापग) निहत्ति हो जायगी। उमको किमीने उपदेश भी नहीं परमेश्वरके भोगसाधन शरोरम सुख, दुःख पोर इंप दिया। फिर कैमे यह स्तों को पीने लगता हैप्रतपय प्रादि फुछ भी नहीं है ; केवल नित्यनान, इच्छा पोर | खोकार करना पड़ेगा कि, लोक और परलोकगामी यस भादि कई एक गुण है। जीवात्मा बहुत है, अर्थात् मुखदुःखादि भोक्ता नित्य एक अतिरिक्त पाना है, धयों एक एक गरीरमै अधिष्ठातास्वरूप एक एक जीवाग्मा है। कि उस बालकको पूर्वजन्मानुभूत पयर्यादि कारणको स्मृतिम यदि मयको पात्मा एक होती तो एक व्यक्तिके सुख या ही हविषाद होता है और पूर्यानुभूत स्तन्यपान दुःखमे मारा जगत् मुखी वा टुःखी होता! जब कि मस्कारये होएम ममय स्तन्यपाम, प्रहत होता है , सुख दुःख भादि प्रात्मा धर्म हैं, सब एका व्यक्ति में गोराई, फाना है, इत्यादि व्यवहार जो गरीरभेदक की पामार्म मप या दुःपका मञ्चार होने पर .मघपनुमार दुपा करता है, यह भमके मिया पोर कुछ की पामामाम सुख पीर दुःखका पसद्धाय नहीं होता नहीं है। Tol. vim. 90