पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टम भाग.djvu/४०२

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जीपात्मा ३५६ जात होने पर भी कार्य होता है; जब तक उसका ज्ञान दिया जा सकता है- किमी कामातुर कामिनोको यह नहीं होता, तब तक उस कारणमे कार्य नहीं होता। उपदेश मिनने पर कि, इस मकानमें एक सुरमिक जिस प्रकार इप्स घरमें भूत है-ऐमा जब तक मान्न म नायक है जिसका स्वर पति मधुर. रूपलावण्य अनुपम नहीं होता, तब तक उस घरके भूतमे डरनेवाले और बदन हास्यपूर्ण है, नम तक वह वहां जा कर व्यक्तियों को भी भय नहीं होता: पर माल म होते उमके गुण नहीं देख लेतो, तब तक वह जिम प्रकार ही भय होता है; उमी प्रकार पारमा परमात्मत्व रहने , पावहादित नहीं शेती; उमो सरह परमात्मपम जीवा पर भी जब तक उमका ज्ञान नहीं होता, तब तक माम प्रकाग रहने पर भी जब तक उसे यह नहीं माम्नम परमात्माकी भाँति जीनाम्मामें भी शक्ति नहीं होती। होता कि, मेरे हो अन्दर परमात्मा पादि गुण है, तव जैसे-अपरिमित धन रहते हुए भी यदि वह अज्ञात है। तक जोवारमा और परमात्माका एकभाव पर्थात् पूर्ण तो प्रीति नहीं होती, किन्तु मेरे पास अपरिमित धन है- भान नहीं होता। किन्तु जप गुरुवाश्यका यवाप, मनन ऐसा ज्ञान होने पर प्रमोम आनन्द होता है । इमी मरह घोर निदिध्यासन किया जाता है, तद जीयामा मत में ही खर प्रर्थात् परमात्मा ई-इस प्रकारका नीवात्मा तादिरूप परमात्माका धर्म मुझमें ही ६'-ऐमे भानका को परमात्माका ज्ञान होने पर एक साधारण प्रोति उदय होता है । उस समय पूर्णभाव हो कर जीयामा • उत्पन्न होती है। इमलिए आममत्व भिन्ना प्रवश्य करनी : और परमात्मा एक हो जाते हैं। ( प्रत्यभिमादर्सन ) चाहिये। ___ग्यदर्शनके मतमे भात्मा (पुरुष) नित्य है। ____उता दर्शनके मतसे परमारमा स्वतःप्रकाशमान अर्थात् माग्यवादो पात्माको पुरुष कहते हैं। लिङ्गगरोरमें अपने आप ही मकागमान है। जिस तरह पालोकका अवस्थान करने के कारण पात्माका नाम पुरुष पात्मा मंयोग न होने पर ग्रहस्थित वस्तु घट, पट पादिका में मत्व. रजः चोर तम ये तीन गुण नहीं है. पामाको प्रकाश नहीं होता, परमात्माके प्रकाशमै उम तरह चेतनम्वरूप, माजी, फूटस्थ, द्रष्टा विवेकी, मुपदुःग्यादि किसी कारणकी अपेक्षा नहीं है, क्योंकि वे सर्वत्र सर्वदा शून्य, मध्यम्य और उदामीन का मकते हैं। पामा प्रकाशमान हैं। यहां कोई यह धापत्ति करते हैं कि, अकर्ता अर्थात् कोई भी कार्य नहीं करतो, प्रक्षति हो जीमात्मा और परमात्मामें परस्पर प्रभेद है और परमारमा, मन काम करती है। में करता है, में मुखो वा दुःखी मवंदा परमात्माके रूपमे सर्वत्र प्रकाशमान है ऐमा। इंइत्यादि जो प्रतोति है, यह भ्रममाव है। वास्तव खोकार करने पर यह भी सौकार करना पड़ेगा कि में सुख, दुःख वा कर्ट व श्रादि पान्मामें नहीं हैं, वे जीवात्मा भो परमात्म रूपमें मर्वदा प्रकाशमान हैं। वुदिके धर्म हैं। कभी परम मुखजमक मामयोशे मिलने प्रन्यया कभी कभी जीवात्मा और परमात्मा परम्पर पर भी सव नहीं होता घोर कमो पति मामान्य विषय 'पभिन्नता नहीं हो मकती। कारण ऐसा नियम है कि, ' में ही परम सुख होतो है, किमो किमीको राज्यताम या सो यस्त जिम वनमे पभिन्न है, उम यस्तु के प्रकाश पर्यशयनम भी मुख नहीं होता पीर को भोट मांगता कालमें उम ( दूमरी) वसुका मो अवश्य प्रकाशक | दुमा भो शिवगय्याम मो कर अपने को परम मुखी होता है। परन्तु परमात्म रूपमें जोयामाका जो प्रकाग मानना है। इमलिए यह पयस्य हो म्वोकार करमा हो रहा है. यह माना नहीं जा मकता, क्योंकि ऐसा होगा कि, मुखकर या दुःपकर नामका कोई प्रनुगत होने मे जीवात्माको उस प्रकार के प्रकागके लिए पात्म नहीं है। जब जिम वसको सुपकर वा दुःकर प्रत्यभिजाको क्या पामग्यकता थी। जीवात्माका उम्: ममझा जाता है, तभी उमके दारा ययाक्रममे सुष पौर प्रकारका प्रकाय तो मिह ही था, मिह विषयक माध: दुःख भोगना पड़ता है। इसलिए सुख दुःपादिको नार्थ किमी भी बुद्धिमान व्यतिकी प्रकृति नहीं हो बुद्धिका धर्म समझना चाहिये। सकती। इस प्रकारको भापति करने पर यह उत्तर न्याय पोर कोषिक दर्गन मतमे-मुम, दु,