पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टम भाग.djvu/४०४

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____३६१ . जीवात्मा लम्बन कर सुख वा दुःखको प्रतिविम्वरूपमे भोगतो है, | मा बतलाया गया है। (सा.तको०१७) वह गरीर दो प्रकारका है-स्य न और सूक्ष्म जीवात्माका परिमाण भङ्गाष्ठ-परिमित है, इस विषय स्य त शरीर माता और पिताके द्वारा उत्पन्न होता है। में सांत्यदर्शन के भाशकार विज्ञान भिसुने लिया है- मातासे लोम, शोणित और मांस तथा पिनासे सायु, | "अंगुष्ठमावेग सूक्ष्मतामुपादयति ।" (मांसपद० मा.) अस्थि और मज्जा उत्पन्न होती है। इन ६ वतुषोंगे जोवा माका परिमाण अगुठमार होना असम्भव है। बने हुए गरीरको पाटकौशिक वा उस रीति के अनुसार हो. अगठमाव' यह कहनमे सूक्ष्म प्रसिपत्र होता है। .माता-पिताके द्वारा सम्मानित होने के कारण इमको माता किमो मतमें केशाग्रका गतभाग करने पर जितना सूक्ष्म पिटन भी कहा जा सकता है। इस परोरको उत्पत्ति होता है, इसका परिमाग उतना सूक्ष्म है। प्रतिने तथा नाश होता है, यह मुक्त ट्रन्यका परिणाममात्र है। मृष्टिमे पहिले एक एक पुरुपका एक एक सम्म शरीर जो वराखायी जाती है, उसका मारभाग रम हो जाता बनाया है, मूत्म शरीर इम ममय उत्पय नहीं होता। और असार-भाग मन और मूवरूपसे निकल जाता मव ही पुरुप जीवामा है। सांग्यमम जीवा माके है। रगमे गोणित, शोणित मांस, मामगे मेघ, मेघसे अतिरिक्त परम-पुरूप ही परमात्मा है, ऐमा कोई प्रमाण मन्ना, मज्जामे शुक्र और शुक्रमे गर्भकी उत्पत्ति होती है। नहीं मालूम होता । किन्तु कपिलदेवका अभिप्राय यह पाट कोगिक गरोर शे अन्तमें मिट्टो या भम्म अथवा | क्या है, इसका निर्णय करना दुरूह है। कपिलदेवने शृगाल कुम गदिके पुगेप में परिणत होगा। कोई | 'सगरिदेः' (गांख्या० ११२) इम सूबके धारा निर्गमरः भी-कितने दो प्रयान क्यों न करे-इम गरीरको अजर- वाद यना किया है, इस विषय पढ़ दर्गनटीकाकार अमर नहीं बना मयता। मन ही मोड़े दिन के लिए वाचम्पतिमियने तत्त्व कीमुदी ग्रन्य में अनेक युनियां दी हैं, पन्तम टूमरा कोई मार्ग नहीं है । पृथिवीलरके : ओर परमात्ममाधक युक्तियोंका सुगइन किया है। लिए जो गति है, गरीबके लिए भी यही गति है। हम सर्वदर्शनमंग्रहकार माधवाधार्यने भी बहुत मी यात लिपी स्व ल शरीरके मिया दूसरा जो एया शरीर है, यही सूक्ष्म | है। परन्तु सांख्यभाषकार विज्ञानमिनका कहना है- शरीर है। कपिलदेवके मतमे भी परमात्मा वाईसर, उनमा बुद्धि, अहसार, पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पांच कन्द्रिय, मन, "रासिद्ध" यह सूववादीको जीतने के लिए प्रीठियाट और पञ्च तन्मात्रा, इन अठारह तत्वों का ममष्टिरूप जो मात्र है। इमोमिए "समाया" ऐसा मूत्र न बना सूक्ष्म शरीर है, वह नित्य अर्थात् महागलय तक स्थायी कर 'ईश्वरासिदे: ऐमा सूव बनाया है। मका ता पर्य पोर पशाहत अर्थात् अप्रतिहत गतियुक्त है। सूक्ष्म-गरीर इस प्रकार है- गिना भीतर, अग्निके भीतर तथा इहलोक और पर- | । यापिनदेव वादीको कहते हैं-इतना ही न कि तुम लोकमें जा सकता है। यह सूक्ष्म-गरीर कभी नर, परा. ] युतियों हारा इंसामिति नहीं कर मरे, फलतः सर पघी, गिला पोर वृक्षादिकी भांतिका प्यू ल शरीर धारग है। परमात्मा वा ईश्वर नती हैं, यह कपिनदेयका करता है तथा कभी स्वर्गीय. कभी नारकोय और कमो | पभिमेत नरों है। घट. पट पादि जडामक यनर पुन: ममुप्प पादिका स्य न शरीर ग्रहण करता है। इस किमो चेतन पदार्थ के पधिष्ठानफे विना कार्यानुठानमे शरीरको सुख-दुःख भोगना पड़ता है। जीवात्मा मृत्युके | प्रकृत पीर ममय नहीं होती, किन्तु जय मपेतन इश माद पर्यात् पाट्कोपिक देश छोड़ने के उपरान्त पठारह पधिष्ठाना हो कर उनका मानयन पादि करता है, तब तवा का प्रययय समष्टिम्प लिङ्गगरीरको ले कर वगंधी उक्त घट पट पादि कार्य करने में प्रत पोर ममर्य पोर नरक पादिको भोगता है, पीछे पाप या पुण्यके वाम गोते हैं। इसी तरह प्रक्षति भी जड़ है, सुतरा किमी ' होने पर फिर यह पगे कांके अनुसार जन्म-परिग्रह मचेतन पधिताताके बिना यह किम कर कार्य करने में सरता है। प्रति पादिमें सागरीरका परिमाण अङ्ग प्रत्त या ममर्य हो सकती है? पतएव नोशार करना Vol. VIII. 91