पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टम भाग.djvu/४०८

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जीवात्मा मम्भावना कैमो ? म दोपके परिवागर्थ यदि पारमा | घोर पन्तर्यामिस्वरूप ईयर पदयाच्य है। और पमियामे पानन्दरूयताको प्रतोति स्त्रोकार को जाय, तो पागतरूप | जो परवनका प्रतिविम्ब पड़ता है, यह प्रतिविम्म उम पूर्णानन्द के रहते हुये कौन जीव ऐमा है जो तुच्छ वियः । अविद्या वयोमूत हो कर मनुयादि ममस्त जीय पद. यानन्द पानवी मनमामै सकचन्दन श्रादिक उपभोगने । वाय होता है । अविद्या भनेकर, रमनिग उममे पनित प्रत्त होगा ? क्या मिद्ध वस्तु केनिए लोगों की प्राप्ति झोतो प्रतिविम्ब भी पनिक है पोर मीलिए जीव भी है ? अतएव पारमा प्रानन्दरूपताको प्रतोति वा श्रम अनेक है। न्याय और वैगेपिक मतमे जीवात्मा, परिस्थ नोति दोनो को पदोपकिन्त राष्ट्र ग्रापति हमलन पोर पातजनके मतमे प्रकृति तथा वेदान्तके मतमे हो मकतो है जब घात्मामें अानन्दरूपताकी मम्पर्ण अविद्या या माया, ये सय प्राय: एक ही पदार्थ है, किन्तु प्रतीति वा मम्प गा अप्रतीति खोकार को जाती।। परम्पर इस विषय में विशेष मतभेट भोर तक उठाया गया वास्तवमें देखा जाय तो आत्माकी अानन्दरूपता अज्ञान है। क्योंकि न्याय और योपिक मममे जीवात्मा जगतका स्वरूप अविद्याकी प्रतिबन्धक है, इसलिए प्रतीति सोकर | कारण है, मांस्य पोर पातम्भन मतमे प्रतति जगत्का भो अप्रतीति होती अवश्य है, किन्तु विशेषतः प्रतीति कारण है और वेदान्त के मतसे पविद्या वा माश जगत्- नहीं होती। सफा हमह दृष्टान्त है-अध्ययनशील का कारण है। इसलिए ये तोनी पदार्थी को एक मानना छात्रके मध्य स्थित चैत्र नामक व्यक्ति का अध्ययन शब्द यहां अमरत नहीं। परन्त प्रत्येक शानकारने प्रयकके अन्यान्य बालकको अध्ययनरूप प्रतिबन्धकतावशत: 'यह मतको खण्डन कर अपना मत मस्थापित किया है। चत्रका अध्ययन शब्द है' ऐसा विशेष जाम नहीं होता, वास्तविक परमात्मा (वन) के मिया मव मिथ्या किन्तु ऐमा मालूम होता है कि इसमें चैत्रमा अध्ययन है। इस जगत्में जो कुछ ऐवन में प्राता है, ना मय गर्द है। परमात्मा प्रतिविम्वयुप्ता सत्व, रज: पोर | रन में मप ममवत् कल्पनामात्र है। जोधारमा हो तमोगुणात्मक तथा गत् वा अमत्ररूप पनिणेय पदार्थ । परमात्मा है, पोर परमात्मा ही जीयारमा है। पतएव विशेषको अन्नान कहते है यम बनाम संमारका कारण ! इस जगत्के मष्टिकाम तथा लोवामा पीर परमामाका है, इमलिये धमकी प्रक्षति भी कहा जा सकता है। इस विभाग करमा बन्मापुत्र के नाम रखने के समान उपहा. अजान पावरप और विपके भेदमे दो शातिया। मास्पद। जैमे मेघ परिमाणमें थोड़ा होने पर भी दर्शकों के नयन यदि परमारमा (महा) के माय जीव का वास्तविक प्राशन कर बहु योजन विम्त सूर्यमगलको भेद नहीं है और जीव ही परमात्मा स्वरूप है, तो जोय भी आशदित करता है. उमो तरह मानने परि-1 की धनयंका मिति तथा प्रभावमाप्तिस्य याम मति चित्र होते हुए भो शतिकै हारा दर्शकों को बुद्धिति यतः मिह हो है, उन लिए फिर तत्वज्ञानको पाप को पाच्छादित कर मानो अपरिच्छिन्द्र घारमाको हो । ग्यकता नहीं। मिदवसको साधने के लिए कौन प्रयव मिरोहित कर रकदा है। एम गतिको यावरणगति | करता है। पान्तु यह पापत्ति या प्रश्न मिर्फ जिगीया कहते है। यह प्रजान यथार्थमें एक होने पर भी पोर स्व लगिता प्रादि दोषोशा कार्य से, ऐमा कहना पषस्थाके भेदमे दो प्रकारका -माया पौर प्रविद्या। चाहिये। क्योंकि मिह पस्तुका भी पसिहभम होता है पिशव पर्थात् रजो वा तमोगुण द्वारा अनभिभून मनान- पोर उम भ्रम के निराकरणार्य उपायान्तरका प्रवलम्बन को माया पोर मलिन पर्यात् रजो या तमोगुण द्वारा करना पड़ेगा। दृष्टान्त दिया जाता है-दा पादमो, पभिभूत मत्वगुतप्रधानको प्रविद्या कहते हैं। हम जो कि मृट , नदी पार हो कर मबने अपनेको शेड़ मायार्ग परमात्माका जो प्रतिविम्य होता है, वहो प्रति कर गिना सोनिकसे, सब उन्हें पड़ी चिन्ता कि, विम्म उमा मायाको पकी पोन कर प्रगत्को एटि] एकको गाय मगर बीच मे गया । परन्तु सब उन्हें करता है। इसलिए यह मनिषिम्य धी मर्पत, महिमान् | युधिमान यहि दारा "दगये तुम" हो ऐमा उपदेश Vol. VIII.92 . ....