पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टम भाग.djvu/४११

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३६६ नोवात्मा मिला, तब उन्होंने अपनेको शामिल कर गिना तो १० | संसारी (अर्थात् जीयामा ) हे मोर जिस समय निकले, जिममे वे मन्तव्य वस्तु के लाभसे परम आनन्दित / उता पाठों फर्म पुयक् हो जायगे उमी ममय यह हुए। ऐमा प्राय: छुपा करता है, लोग अपने कन्धे पर चिद्रूप वा परमात्मा रूप परिणत हो जायगी : प्रामा अंगोछा रख कर इधर उधर खोजा करते हैं। अतएव । चैतन्यस्वरूप है पौर करें जड़ है। इन दोनोशाम जीव परमात्माका स्वरूप होने पर भी यदि प्रज्ञान अनादिकालसे चला आ रहा है। जीवात्माको मुशिया . मित्ति के लिए उपाय अवलम्बन करता है, तो उसमें मोक्षके बाद फिर संमारमें गरिमाण नहीं करना पड़ता। हानि क्या ? वरन् उपर्युक्त युक्तिके अनुसार आवश्यफ | ईखर वा परमात्मा परूयो हैं। वे प्रहयो हो कर हमें फक्तव्य ही प्रतोत होता है। पदार्थको सृष्टि नहीं कर सकते। परमात्मा संसारके : बुद्धि जानेन्द्रिय पञ्चक सहित विमानमयकोप, मन ! झझटोंसे बिलकुल अलग हैं और वे अपने अस्तित्व कर्मेन्ट्रिय महित मनोमयकोप और कर्मेन्द्रिय सहित चैतन्य, अनन्तसुख, सम्यकदर्शन, सर्वज्ञता, पारममिष्ठा माप प्राणमयकोप गिना जाता है। इन तीनों कोषों में | आदि गुणों में हो तहीन है। जगत्का कोई भी कती विज्ञानमयकोप जानतिमान् और कर्तत्व शक्तिसम्पन्न नहीं; जगत् अनादिकालमे ऐसा हो है और अनन्त कान है, मनोमयकोप झाक्तिगील और करणस्वरूप है। तक रहेगा। मन, बचन और कायकी पञ्चननामे को सथा प्राणमयकोष क्रियाशक्तिशाग्नी और कार्य स्वरूप है। पाप वा पुण्य कर्माका बन्ध होता है । पर या पांच शानिन्द्रिय, पाप कर्म न्द्रिय पांच प्राप, बुद्धि पीर परमात्मा मन-वचन काय इन तीनोंसे शून्च है, वे अपने - मन, इन मनाके मिलने पर सूक्ष्म शरीर होता है, जिस कालिक जानमें तन्मय हैं । इसलिए उनका सष्टिकता को कि निगरीर कहते हैं। यह लिङ्गगरीर परलोक | होना असम्भव है। जीवात्मा या संसारी पात्मा कर्मयुता और परलोक गामी तथा मुक्ति पर्यन्त स्थायी है । इस लिङ्ग रूपी है। इसके तेजस पोर कामग दो शरोर मयंदा शरीरका जब स्थ लगरीर परित्याग करमेका समय उप रहते हैं। आयुकर्म को अवधिके अनुसार जन्ममत्व, स्थित होता है, इस ममय जैमे जलीका एक होती रहती है। किसी वाति वा पशु पनो आदिकी अवलम्बन किये बिना पूर्वाथिन रणादि नहीं त्याग | मृत्यु होते ही उसकी पारमा तेजस ओर कामण शरीर सकती, वैसे ही श्रात्मा ( अर्थात् लिङ्गशरीर ) की मृत्युके सहित तीन समय (एक समयं बहुत छोटा होता है, . अथवहित पहले एक भावनामय गरीर होता है। उस एक सेकेण्डके अन्दर असंख्य समय बोत जाते हैं) . शरीरके होने पर यावज्जीवनव्यापी कर्मराशि पा कर | भीतर अन्य शरीर धारण कर लेती है। मामा पमर उपस्थित होती है, फिर फर्म के अनुसार कोई भी मनुष्य है। जब तक यह कर्म युक्त है, तब तक सुख-दुःखादि पर, पक्षी, कोट भादिके एक प्राथय लेने पर पात्मा भोगती है, कर्ममता होते ही परमात्म पद पा कर पनन्तः निङ्गगरोरके माथ उस देहका पायय ले कर पूर्य देव सुखका अनुभव करती है । म रमन् देखो। परित्याग करती है। प्रम देशो। प्राण निकलते समय लीवादान ( सं० ली.) जीवाना आदान, तत् । वैध नवा मे निकलते हैं। और रोगीको अन्नतामे वमन और विरेचनमें पन्द्रह प्रकार बनदर्शनके मतसे-प्रति गरीरमें एक एक प्रारमा) के वापद होते हैं, उनमे एकया नाम जोयादान है। हैं। यदि ममको पारमा पृथक पृथक् न हो कर एक सुहातमें इसका विषय इस प्रकार लिखा ई विरेचन के होतो. तो प्रत्येक प्राणीको एक ममान सुख दुःख भतियोगमे पहले ममह अन्न, पो मांसधीतके समान होता पीर परम्पर पादिको प्रहत्ति नहीं होती। पामा जन्म फिर जोयशोणित, पीछे गुदस्यान त निकल पाता अनादिमे है और पनका कान्त तक विद्यमान रहेगो तथा तथा कंपकंपी पौर के होती है। ऐमी दयाने अधी प्रमकी संख्या भी पमना है। अभ नफ यह मानायरपोय. भागमे गुद३ निकन पाने पर घो तुप पोर मंदप्रयोग दानामापीय मादि प्रक्षों के गीत, सब सश कर उसे भीतर प्रतिट धारा द पथवा रोगको प्रक्षालो .'