पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टम भाग.djvu/४१४

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३६ जीवास्पतिवाद विकास परमामा ही गरोरमें जोवको भौति विरा, उत्पन्न होता है। किन्तु धात्मा पर्थात् जोन उत्पय जित हैं, यह कैमें जाना गया ? यह महज में नहीं जाना महीं होता । कारण यह है कि, युयुत उत्पत्ति प्रकरणामें जा सकता। क्योंकि परमात्मा और नोवारमा समलक्षण | बहुत जगह जीवकी उत्पत्ति पनुमा है। एक जगह नहीं हैं। परमात्मा हो जोव है, यह तव दुविजेय पयवण होने पर उमसे शुन्यन्तरकधित उत्पत्ति निवारित है। परमात्मा निष्पाप, निधर्मक और निष्क्रिय है, जीव नहीं होती-यह ठीक है, पर जीवकी उत्पत्ति घमम्भव इससे मम्म विपरीत है। जीयारमा देखो। विभाग है। कोकि जोव नित्य ई। शुनिक प्रजवादि गदसे होने पर भी जीवका विकारत्व (जन्मगरण ) मालम । जीवको नित्यता प्रतीत होती है । जल, अधिकारिख होता है। आकागादि जितने भी विभक्त पदार्थ है, । है, इसलिए अधिकृत मनका ही जीवरुपी रहमा पार सभी विकार हैं। जीव भी पुण्यपापकारी मुखदुखभागी ! जोवका ब्रह्मत्व युति द्वारा विनिशित होता है। पारमनित्यः और प्रतिगरोरम विभक्त हैं। इसलिए नोवकी भी जग- त्ववादी सिनिचय यह है-"जीव मरते नहीं, ६ हीये टुत्पत्तिके ममय उत्पत्ति पुई थो, यह बात सङ्गत है। हैं, ये महान जन्मरहित हैं, पारमा अजर, अमर, अभय और भी देखा जाता है कि, जिम प्रकार अग्निमे शुद्र और प्रविपचित् है अर्यात् पारमा न जन्मती पोरन विस्फ लिग निकलते हैं, उसी प्रकार परमात्मामे समस्त मरती ही है, यह भामा मन, निता गासत पीर पुरा- प्राणी जन्म लेते हैं। थ तिने इस प्रकार जीवभोग्य तन है, वे सृष्टि कर उसमें पनुमविष्ट " "जोय नामक प्रागपादिकी सृष्टिका उपदेश दिया है-"ये मन पारमाएँ प्रामा हो कर अनुप्रवेगपूर्वक नामरुप यात धाराँगा" उससे व्य चारित होती हैं । यतिकी इस उक्तिमे , “धे परमात्मा इम गरोग्में नामाय त प्राविष्ट " ये भोगामगणकी सृष्टि पदिष्ट हुई है। जैसे प्रदोग: मर शुतियां जीवके नित्यत्वको याधम है। जोयको पावकमसे पावकरूपी हजारों स्फुलि निकलते हैं, उमो विभक्त कहा था, यह भी नहीं फह मकते। जीय तरह इस अक्षर ब्रहमसे पक्षर ममानरूपी विविध पदार्थ विभत है, विभा होनेसे विकार (जन्मविशिष्ट) . पोते और उसमें लय हो जाते हैं। यतिके विकारत्वके कारण उत्पत्तिगीन है, यह बात भी मदत 'ममानरूपो' मदमे जोयात्माका उत्पत्ति विनाश नहीं है, क्योंकि जीयों में खतः प्रविभाग (पार्थय) होता, ऐसा ममझना होगा। स्फलिङ्ग और अग्नि नहीं है। समानरूपो हैं। जीवात्मा और परमात्मा दोनों ही वह मवैश्यापी एक हो देव सर्पभूतकी गुहा घेसन है, इसलिए मसानरूपी है। एक यतिमें उत्पत्ति अवस्थित है। इसलिए वे समुदय भूतको घमारारमा है, कथन नहीं है, इसलिए पन्य य त्या उत्पत्तिका निषेध | यह यति ही उमका प्रमाप है। जिस तरह पाका भोगा, यह नहीं कहा जा सकता। अन्य यतिस्थ पति- घटादि सम्बन्धके कारण विभकरूपये प्रतिभात होता, •रिता पदार्थ सर्व मंग्रहीत होता है। परमात्मा| उसी तरह परमात्मा भी बुरादि उपाधि मम्बन्ध दाग खसट गरीर, पणुप्रयिष्ट हुए हैं इत्यादि प्रतिमें | विमताको माति प्रतिभात होते हैं। पणप्रवेश शब्दका विकार अर्थ ग्रहण करना हो उचित म विषय में मात्र प्रमाण है-"यो अर पारमा है। अभिप्राय यह है कि, अरोरमें पविरुत ग्रामका विज्ञानमय, मनोमय, पापमय, पम्य और योसमय प्रयेग नों, फिन्तु यह :अलका विकार हे "रत्यादि । इस गासहारा एक ही घने बाल भीर या सयव प्रमिह है कि, घिकार और उत्पत्ति, बुद्दादिमयत्व कहा गया है। जोषका जो यया स्य समानायक है। पूर्व पत्तका उपसंहार यह है- है. उसका विसष्ट या विधानगोचर न होना दुयादि अशिक्षित युक्तिम भीष भो वापसे प्राकागादिको तर माथ एकोमाय मासिके कारण तमायापत्ति होती है। .भान पृथक् पदा। दो, तो प्रदा के जानन पर जोहा मे-ब्रीमय इत्यादि । किमो किसी युमि प्रोयोंकी मान नहीं होगा। इसलिए सविमानप्रतिक्षा भैग हो जायगी। पति और प्रसय विषयमे मो सिधा है, वह भी - Vol. VIII, 93