पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टम भाग.djvu/५०

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४५ नयकुमार भरत चकवतों के साम्राज्यमें थोड़े ही दिनके बाद | क्रीड़ा करते देख मूळ पा गई। उन्हें भी पूर्व जन्मको स्वयंवर ( कन्या हारा पतिका स्वयं वरण करना)। बाते स्मरण हुआ और 'हिरण्यवर्मा को पुकारने लगीं। विधिका प्रचलन हुपी। मयम हो काशी के राजा प्रकः । हिरण्यवर्मा'का नाम सुनते ही जयकुमारने कहा- म्पनने अपनी पुत्री सुलोचनाका खय'वर फराया। "प्रिये ! मेरा हो नाम हिरण्यवर्मा था ।" सुलोचनाने स्वयंवर मण्डपमे बड़े बड़े विद्याधर और राजा महा | गदगदकण्ठसे कहा-"नाथ ! मैं भी पहले जन्म में प्रभा. राज एवं' भनेक राजपुत्रीके उपस्थित होते हुए भी वती थी।" इस प्रकार अपनेको पूर्व भक्के विद्याधर सुलोचनाने हस्तिनापुरके स्वामी राजा जयकुमारके | जान जयकुमार और सुलोचनाको परम आनन्द हुआ। गलेमें वरमाला डास्त दी। राजराजेश्वर भरत चक्र दोनों सुखसे काल यापन करने लगे। अन्तःपुरको अन्य वर्ती ज्येष्ठपुत्र प्रकोति मी स्ययवर उपस्थित थे। गनियों को इनके पूर्व जम्मका यह चरित्र देख कर बड़ा सुनोचनाने जय जयकुमारके गलेमें माला पहना दो, आयय हुा । वे सुलोचनासे पूर्व जन्मको कथा सुनाने के तो उन्हें बड़ा क्रोध आया । उसो समय ये जयकुमारसे लिये अनुरोध करने लगी। सुलोचना कहने लगी- युद्ध करने के लिए तैयार हो गये। दोनों में घमसान | ___"इसी पृथियो पर किसी जगह मकान्त नामक एक युद्ध हुआ। प्रकीर्तिको अभिमान या कि, में व्यक्ति अपनी स्त्री रतिवेगाके साथ मुखसे रहते थे। किमो चक्रवर्ती का पुत्र है, मुझे कौन जीत सकता है! कारणसे उहिरिण्टकारि नामक एक व्यक्सेि सुकान्तको किन्तु यह नियम है कि घमण्डियोका ही घमण्ड चूर अनुता हो गई । उहिण्टकारिका दूसरा नाम भवदेव था। होता है। राजा जयकुमार असीम पराक्रमी और उदार उसने सुकान्त और रतिवेगाको अग्निमें डाल कर मार चेता महापुरुष थे। इन्होंने जीवित अवस्थामें हो | डाला । दम्पतीम परस्पर खूब मेम था। मर कर ये दोनों भककोतिको पकड़ लिया और पोछे बन्धनसे मुप्ता कर अपने मनके भावानुसार कबूतर कबूतरी हुए । उहिण्टि. सम्मानपूर्वक उन्हें छोड़ दिया । चक्रयतिपुत्र पर्ककोति | कारिको भी राजदण्ड हुआ। राजा शक्तिपणने उसको सज्जित हो अपने घर पहुंचे। जब सुलोचनाके साथ | अग्नि निक्षिप्त करने का आदेश दिया । यह.मर कर मार्जार जयकुमार अयोध्या पाये, तो भरतचक्रवती उन पर | दुपा। यहां भी उसने अपना वैर न छोड़ा पौर कबूतर अत्यन्त प्रसव हुए और बार बार उनको प्रशंसा करने कयतरीको पा गया। कबूतर और कबूतरीके जीवने सगे। पनन्तर जयकुमारने हस्तिनापुर जानेको आधा किसी समय मुनि महाराज के लिये किमौको पाहार 'मांगी। भरतचक्रवर्ती ने इन्हें सम्मानपूर्वक विदा कर दान करते देख उसका अनुमोदन किया था, मतः उस दिया। (जैन हरिवंशपुराण १२००६ .) पुण्यके प्रभावसे कब तर तो मर कर हिरण्यवर्मा नामक पक दिन सन्ध्याके समय हस्तिनापुरके स्वामी राजा विद्याधर हुआ और कबूतरी उसको सी-(प्रभावतो जयकुमार पपनी पनेक रानियों सहित महस्तकी छत हुई। यह मार्जार भो, कुछ दिन बाद मर कर विद्युबैग पर बैठे थे, कि इतने में एक विद्याधर ( पाकाय गमन | नामका चोर दुपा। रामा हिरण्यवर्मा और प्रभावती. . पादि मादयो के धारक मनुष्य वा राना ) अपनी स्त्री के को किसी कारणवश संसारसे वैराग्य हो गया, दोनों ने साप उनके सामने से निकल गये। विद्याधरीको देखते | राज्य-सुखको छोड़ कर मुनि और पायिकाको दीक्षा ही ये माहित हो गये । उनकी म छित अवस्थाको देख ले ली। वनमें भी उन्हें शान्ति न मिलो। घूमता फिरता कर रानियां धनगगई पौर अनेक उपचार करने लगो। विद्युग भो पहा पा पहुंचा । मुनि एवं धार्यिकाको अब कुछ होम हुआ तो "हाय ! प्रभावती तू कहां देख कर उसे पूर्व जग्मके प्रवल मंव ताके कारण क्रोध चली गई इत्यादि कह कर दुःखित होने लगे।" उसी आ गया और दोनों को उसने पापरहित कर दिया। . समय उन्हें पूर्व जन्म का स्मरण हो पाया। उधर रानो दोनों मर कर सौधर्म नामक प्रथम स्वग में देव और मुलोचनाको भी महलके छने पर कबूतर कव तरीको| देवांगना हुए। विधुरंगको राजाने कारावासका दम Vol. VII. 12