पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टम भाग.djvu/५०८

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बैनधर्म ४५० ‘परम्पर एक दूमरेको अवज्ञांग देते हैं, किन्तु भाकामपापनियों (पापकर्मा) का पास्रव करता है। ट्रय ममम्त द्रव्योंको युगपत् ( एकमाय अवकाम देता। प्रालियोंका घात करना, अमन्य बोनना, चोरी करना, है; इमनिए इम लक्षण में प्रतियामि टोप नहीं पाता। इयां माव रखना इत्यादि अगुमयोग है और इनमें पाय .आकागद्रवा यद्यपि निश्चय नयकी अगेडामे अपरिहत कर्माका अाम्रब ( आगमन ) होता है। जीवोंकी रक्षा एक दवा है, तयापि बाबहार-नयको अपेनामे दमके टो। झाना, उपकार करना, मत्य बोलना, पचपरमटीकी मैट हैं। यथा -एक नोककाग और दूमा अनीशा मलिपुत्रादि करना आदि समयोग हैं। इनमें पुस्य काम। मध्यापी अनन्त श्राकाग बोरके कुछ भागीं। कर्माका पासव होता है। पानय दो मैद है-एक जीव, पुन, धर्म, अधर्म और कान के पांच द्रवा है। माम्मरायिक आम्नव और दुमरा ईपिय प्रास्रव । जितने माझागमें ये पांच दवा है उतने आकागको कयाय ( क्रोध, मान, माया, नोम) महित बौद्धि नोकाकाय कहते हैं और बाकीने पाकागको अनीका माम्परायिक धासक, पौर क्याय-रहित नीवपिय काग। मनोकाकाय नोकाकाग बाहर ममस्तु प्रास्रव होता है। अथवा मझिये कि, मंमार (बन्द- दिशाओम स्थान है। वहां प्राशायदवा मिवा अन्य मर) के कारन रूप पानवाँको नाम्मायिक प्रानव कोई भी पदार्य नहीं है और मिनिए उममें विषय | कहते हैं और स्थितिरहित कम पानव होनेशी विशेष कुछ वहवा भी नहीं है। देशमा विशेष चापय आम्रव कहते हैं। ईयांपय पासव मोचशा विदाज "लोट-रचना में किया गया है। कारर है। कानद्या-त्रो जीवादि ट्रयाक परिगमन (परिवर्तन) माम्पगयिक प्रास्रव-पांच इन्द्रियें, चार कपाय, में महकारो हो, उमे कालवा कहत हैं। इसके टो मैद। पांच प्रवत चौर पञ्चीम क्रियाएं वे मद माम्परायिक हैं, नियवशाल पोर वावहारकान। यो परिणमम पास भेट है; अर्थात् इनके निमित्तम माम्परायिक करानमें निकियारूप महायज्ञ लोकाशाय प्रत्येक प्रान्नव होता है। पांच इन्द्रियें-१ म्पसन, २. रमना, प्रदेश रव-गमिवन् कान्ट में जो भिव्र मिद अणु हैं, उमे! ३घाप, ४ चक्षु और ५ कर्म। दार कशय शोध. नियवहार कहते हैं। निययकानके अ प्रमूर्तिक! २मान, ३ माया और ४ सीमा पांच अवत,-रिमा. हैं। ट्रयाकी पर्यायों ( अवस्यायों के परिवर्तन कारए २चत (मठ), ३ वीर्य (चोरी), ४ अत्रय कुगीन) कात्रो घटिशा, दिन, माह, माम, वर्ष पाटि है, वह और ५ परिग्रह (जड़ पहामि ममत्व)। पझोम क्रियाएं। वावहारकान कहनाता है। सम्बढ़िया (देव-शास्त्र-गुरुकी मष्टि-पूजादि करना), (३) मामूदद्वत्त-शाय, वचन और मनकी मियातक्रिया (अन्न कुदेव, कुयुत और कुगुरुकी रियाको योग कहते हैं, पर्यात् गरीर वचन और मन मलि-यहा करना), प्रयोगक्रिया (चरीर. बदन और दाराशामा प्रदेगोंका मकम्प होना ही योग है। यह मनने गमनागमनादि क्ष्य प्रवर्तन करना), ४ ममादाम तीन प्रकारका है, १ काययोग, २ वाग्योग और मनो- क्रिया (मयमीका प्रवति मग्न म होना), ५ र्यापन योग। यह योग ही कति पागमनका धाररूप प्रामक क्रिया (गमन लिए क्रिया करना), ६ प्राटोपिकी क्रिया है। हिम प्रकार मरोवरमें उन पनि हार (मोठे) (क्रोध पावेपने की गई क्रिया), कायिकी क्रिया उनके पार्निमें कारण होते हैं, टमी प्रकार पामार भी। (टुटतारे लिए उद्यम करना), प्राधिकरपिकी क्रिया मनवचनकायस्प योगडि द्वारा जो उमाराम कम पात ! (हिमाई दयकरच यम्बाटिका ग्रहप करना), पारि- है, इन पानिमें योगशारण है। यहां कार कार्यकी| ताधिको क्रिया (पन या परके दुग्योत्पत्तिमें हारकर 'मभावना कर योगोंको ही मानव कहा गया है। क्रिया, ५० प्रागतिपातिकी क्रिया (पायु, इन्द्रिय. इन गम परिपार्टीम उत्पद दुबा योग पुरु-प्रक्षतिश और मामोछाम इन प्राकिर वियोग करना) ११ पासव करता है पर पगम मामि इत्पन्द्र का योग दलिया ( रामकी अधिकता कारण प्रमादा Vol. THI.113