पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टम भाग.djvu/५१०

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जैनधर्म परस्पर एक दूसरे को अवकाश देते हैं, किन्तु भाकाश 'पापप्रकृतियों (पापकर्मों) का आस्रव · करता है। ट्रय.समस्त ट्रयोंको युगपत् ( एकमाय ) अवकाश देता प्राणियोंका धात करना, असत्य बोलना, चोरी करना, है; इसलिए इस लक्षणमें अतिव्याहि दोष नहीं पाता।। या भाव रखना इत्यादि अशुभयोग हैं और इनसे पाप आकाशद्रवा यद्यपि निथय नयको अपेक्षाम अखण्डित कमौका पास्रव (आगमन ) होता है। जीवोंकी रक्षा एक द्रवा है, तथापि वावहार-नयको अपेक्षामे इसके दो करना, उपकार करना, सत्य बोलना, पञ्चपरमेहीकी भेद हैं। यथा-एक लोकाकाश और दूसरा अलीका भक्तिपूजादि करना भादि शमयोग है'; इनमे पुण्य कांश । सर्वव्यापी अनन्त आकाशके बीचके कुछ भागमें | कर्मीका आस्रव होता है। आस्रवके दो भेद हैं-एक जीव, पुहल, धर्म, अधर्म और काल ये पांच द्रवा हैं । साम्परायिक पासव और दूसरा ईयांपथ - पासवः । जितने अाकाशमें ये पांच ट्रा हैं. उतने आकाशको | कपाय ( क्रोध, मान, माया, लोभ) सहित जोकि लोकाकाश कहते हैं और बाकीके आकाशको अलोका साम्परायिक पासव, और कपाय-रहित जीवोंके ईर्यापथ काश ।' अलोकाकाश लोकाकाशके बाहर समस्त भास्रव होता है । अथवा यो समझिये कि, संसार (जन्म- दिशामि व्याप्त है। यहां पाकाशवाके सिवा अन्य | मरण ) के कारण रूप पासवाको साम्परायिक- आस्रव

कोई भी पदार्थ नहीं है और इसलिए उसके विषय | कहते हैं और स्थितिरहित कौके पासव होनेको

विशेष कुछ वक्तवा भी नहीं है। लोकाकाशका विशेष | ईर्यापथ प्रास्रव कहते हैं। ईर्यापथ पासव मोचका विवरण "लोक-रचना शीर्षकमें किया गया है। कारण है। । कान्नद्रया-जो जीवादि द्रव्योंके परिणामन (परिवर्तन) ___माम्परायिक प्रास्रव-पांच इन्द्रिये, चार कयाय, में सहकारी हो, उसे कालद्रवा कहते हैं। इसके दो भेद | पांच अव्रत और पच्चीस क्रियाएं ये सब साम्मरायिक हैं, निश्चय काल और वावहारकाल । 'ट्रयोंके परिणमम यावद्वारकाल । 'टयोंकि परिणमन | प्रास्रवके भेद है । अर्थात् इनके निमित्तसे साम्परायिक 'कराने में निष्कि यारूप सहायक लोकाकायके प्रत्येक पानव होता है। पांच इन्द्रिय--१ स्पर्शन, २ रसना, प्रदेशमै रम-राशिवत् काल के जो भिन्न भिन्न पण हैं, उसे ३ घाण, ४ चक्षु और ५ कण । चार कषाय-१ क्रोध, निययकान कहते हैं। निश्यकालके अण प्रमूर्तिक २ मान, ३ माया और ४ लोभ । पांच अवत,-१ हिंसा, हैं। द्रयोंको पर्यायों ( अवस्थानी )के परिवत नौ कारण२ अन्त (झंठ), ३ चौर्य (चोरी), ४ भब्रह्म (कुशील) रूप जो घटिका, दिन, महाह, मास, वर्ष आदि हैं, बह और ५ परिग्रह (जड़-पदार्थोसे ममत्व)। पच्चीस क्रियाएं- यावहार काल कहलाता है। १ सम्यकक्रिया (देव-शास्त्र-गुरुकी भक्ति-पूजादि करना), 3 । (३).भासूबतत्त-काय, वचन और मनकी २ मिथ्यात्वक्रिया (अन्य कुदेव, कुश्रुत और कुगुरुकी क्रियाको योग कहते हैं, अर्थात् शरीर वचन और मनके } भक्ति यहा करना), ३ प्रयोगक्रिया (शरीर, वचन और सारा आमाके प्रदेगीका सकम्प होना ही योग है। यह मनसे गमनागमनादि रूप प्रवर्तन करना), ४ समादाम तीन प्रकारका है, १ काययोग, २ वाग्योग और ३ मनो• क्रिया (सयमीका अवरतिके मम्मुख होना), ५ र्यापथ, -योग। यह योग ही कर्मी के आगमनका हाररूप प्रास्रव क्रिया (गमनके लिए क्रिया करना), ६ प्रादोपिकी क्रिया है। जिस प्रकार सरोवरमें जल पानेके हार ( मोखें)। (क्रोधर्क प्रावेशसे की गई क्रिया), ७ कायिकी क्रिया जल के पाने में कारण होते हैं, उसी प्रकार . प्रास्माके भी (दुष्टताके लिए उद्यम करना),८ आधिकरणिकी क्रिया मनवधनकायरूप योगों के द्वारा जो शुभाशुभ कर्म प्रति (हिंमाके उपकरण शस्त्रादिका ग्रहण करना), पारि हैं, उनके पार्नमें योग कारण है। यहां कारणमें कार्यकी| ताविको क्रिया (अपने वा परके दुःखोत्पत्तिमें कारणरूप मम्भावना करके योगाँको ही पासव कहा गया है। क्रिया), १० प्राणातिपातिकी क्रिया (पायु, इन्द्रिय, वन शुभ. परिणामोंसे उत्पन्न हुप्रा योग पुण्य-मलतियांका और म्यासोच्छास इन मागेका वियोग, करना.); १९ पासव करता है और मशम भावोंसे उत्पन हुआ. योग ] - दर्शनक्रिया .( रागको पधिकताके कारण प्रमाद. Vol. VIII. 115