पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टम भाग.djvu/५१४

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जैनधर्म ४६१ ६) निर्जरातत्व-यांमासे काँके एकदेश (किञ्चित् । अन्य भार्योका अभाव हो जाता है। सम्पर्ण कर्म के पृथक् होने वा क्षय होनेको निर्जरा कहते हैं। इसके भी नष्ट होने पर वह मुक्त प्रामा गमन करती है और दो भेद हैं । वानिर्जरा और २ भावनिर्जरा । यथा- लोकाकाशको अवधिपर्य स जा कर वहीं स्थित रहती कान कौकी स्थिति पूरी होने पर जिम भाव (तप )से है। कारण उसके आगे अलोकाकाश होनेसे धर्मद्रश्य 'फन दे कर अथवा विना फन्न दिये हो कर्म भर (पृथक) । का प्रभाव है और इसीलिए जीवका गमन भी प्रमभय जाते हैं, उसे भावनिर्जरा कहते हैं तथा उन कर्म पुगनी. है। मुक्त होते समय शरीरका जैसा मामन होगा या के पृथक होनेको ट्रयानिर्जरा कहते हैं। इसके सिवा जितने प्रदेशमें स्थित होगा मुक्त प्रात्मा भो सिह लोकमें दो भेद इस प्रकार भी हैं-१ मविपाकनिर्नरा और जा कर उतने हो प्रदेशमें व्यास रहेगी। २ अविपक्रिनिर्जरा। काँका नदयकाल पाने पर रस कर्म-सिद्धांत -हिन्दधम में सैसा पाप पुष और 'दे कर अपने पाप आत्मामे पृथक् हो जाना, मविपाक उमका फलाफल माना है, उसी प्रकार जैनधर्म में कर्म निर्जरा कहलाती है । यह मविपाकनिर्जरा चारों गतियों माना है। कर्म माधारणत: दो प्रकार के होते हैं, एक में रहनेवाले समस्त संसारी जीवोंके हुआ करती है। राम और दूमरे प्रशम। पुण्यको राम कर्म कह सकते भौंको उदयकालके आये विना हो तपथरणादि हारा हैं पोर पापको प्रशभकम । शुभकर्म मे सांसारिक सुख (अनुदय अवस्था में ही) पात्मासे पृथक् कर देनेको मिलता है और अशुभकर्म मे दुःख पास होता है। किन्तु भविपाकनिर्जरा कहते हैं। ये दोनों हो प्रकार के कर्म प्रारमाको समारमें परिभ्रमण निर्जराके भेद-प्रभेद तथा वह किस ममय, कैसे वा जन्म मरण करानेवाले हैं। इसलिए जैन सिद्धान्त. और क्यों होती है, इत्यादि बातोंका पर्यन प्राग चल में पाप पुष वा शुभ अशुभ दोनों हो कमीको श्रामाका कर "मुनि-धाचार" शीर्ष कमें करेंगे। अहितकारी माना है। क्योंकि जब तक पारमा कम- (७) मोक्षतत्व-यात्मासे अष्ट काँका सर्वथा पृथक् । रहित नहीं होतो, तब तक उसको मोक्षको (जो कि हो जाना ही मोक्ष है। मोक्षका अर्थ है मुक्ति । भामा प्रामाका ध्येय है ) प्रामि नहीं होती। मनमिवान्तमें कमबन्धनसे पराधीन है, उसका उससे मुक्त होना ही कम का लसप इस प्रकार किया है--जीव वा प्रामाके मोक्ष है। मोक्ष प्रात्माका अन्तिम ध्येय है । यह मोच गग हेप भादि परिणामों' (भावो') के निमित्तम कार्माण 'केवलज्ञानपूर्वक हो होता है, इमलिये यहाँ केयलमान वर्गणा रूप जो पुनस्ल स्कन्ध जीवके माय बन्धको प्राम • की उत्पतिक विषयमें कुछ कहा जाता है। जानावरण, होते हैं, उनको कर्म कहते हैं। अब कर्माका पात्माके दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय इन चार घातिया साय मम्बन्ध कैसे होता है, इस विषयको निखते हैं। 'कर्मा के सर्वथा नर होते जाने पर केवलज्ञानको उत्पत्ति ___ जीव कपाय (क्रोध मान माया-खोमरूप आत्माकै होती है। तब प्रात्मा सर्वज्ञताको प्राप्त कर परमामा- विभाव) महित होने के कारण जो कोकि योग्य पुलो- । पद पर अधिष्ठित होती है। उसके बाद प्रायुकर्म को को ग्रहण करता है, उसको बन्ध कहते हैं। समस्त लोक अवधि पूर्ण होनेके माय वेदनीय, नाम और गोव इन | (त्रिभुवन )में पुदलों के परमाणु भरे हुए हैं। पौर उनमें .. अधातिया कोका सर्वथा नाय होने पर आत्मा कर्म अनन्तानन्त परमाए ऐसे भी हैं जो कम होनेको योग्यता बन्धनसे मुक्त होती है। पात्माकी उम मुना अवस्थाका रखते हैं। ऐमे परमाणुषों का नाम कार्माणवर्गप्पा नाम मोक्ष है। मोक्ष प्राप्त. आमा पुनः में सारमें नहीं है। कार्माणवर्गणा लोकमें मर्वत्र व्याय है; जहाँ आतो अर्थात् वह जन्म, जरा मरणादि दुखोंसे सर्वथा पामा प्रदेश हैं, वहां भी इनका अस्तित्व है। जब - मुक्त हो जातो है। "मुक्त भामा मिह , कहलाती है। मान्मा योग ( मन वरम-काय इन तीनों को किया ) मिहापामा वा परमात्माके केवन सम्यता, केवलज्ञान, कारण सकम्प होती है, तब चारों ओर से प्रामाके प्रदेशी- देवन्तदान और केवलमिहत्व इम चार भाषोंके सिवा में कार्मादवर्गपायोंका सम्बन्ध होता है। इस प्रकार Vol. VIII. 116