पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टम भाग.djvu/५२१

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४०. नैनधर्म पानावरण, दर्शनावरण. वेदनीय और अन्तरायको । अनुभागबन्ध-तीन घऔर मंन्द कंपायरूप जिम उत्कट स्थिति तीस कोडाकोड़ी मागर प्रमाण है। इनमें | प्रकारके भावोंसे कर्माशा पास्रव हुआ है, उनके अनुसार भी भानावरणकी पांच, दर्गनावरणको नव, अन्तरायको कमीको फलदायक गतिकी तीव्रता घोर मन्दता होने पांच और धमातावेदनीय की एक इन बीम प्रतियों को को अनुभागवन्ध कहते है। कम प्रहतियों के नामानुमाए उलट स्थिति तीस कोडाकोड़ो मागरकी है। और माता. ही उनका अनुभव होता है अर्थात् उनको फसदायक वेदनीयको एक प्रक्षतिको उत्कट स्थिति पंद्रह कोड़ा. शक्ति कम प्रहतियोंके नामानुमार होती है। अब हम कोड़ी मागरकी है। बातका निर्णय करते हैं कि, जो कर्म उदयों या कर ___ मोहनीयकम की उत्कट स्थिति मत्तर कोडाकोड़ी | तोत्र वा मन्द रम देते हैं, उन कर्मों का आवरण ओषक सागर परिमित है। इस उत्कट स्थितिका वन्ध मिष्यादृष्टि | माय लगा रहता है या मार रहित हो कर प्रात्मामे मजो पञ्चेंद्रिय पीक जीवों के होता है। जीवोंके । पृथक हो जाता है ? . भेदमे इसमें तारतम्य होता है। यथा-एकेन्द्रिय पर्यातक अनुभागबन्धके पथात् निर्जरा ही होता है। अर्थात् नो के उत्कष्ट स्थिति एक सागर. हीन्द्रियके २५ मांगर. कर्मबन्ध हुआ, वह उदयके समय भारमाको सुख-दुःख है तीन्द्रियके ५० सागर ओर चतुरिनिय मोहनीयकमको कर अत्मासे पृथक हो जाता है। यह निर्जरा दो प्रकार: उत्कट स्थिति १०० सागर परिमित होती है। अमञो । को है- १ मविपाक निर्जरा और २ .अविपाक निजा। पर्यामक असजि.पञ्चन्द्रियके मोहनीयकम की उत्कट __“प्रदेशव-जानावरणादि कर्माको प्रकृतियों स्थिति एक हजार सागरको होती है। कारणभूत और समस्त भावों में ( वा ममयों में) मन नामकम और गोतवार्म की उत्कट स्थिति बीम | वचन कायके क्रियारूप योगोंसे प्रात्माके समस्त प्रदेशों में कोडाकोढ़ी सागर परिमित है। यह स्थिति मजो पञ्चे। सूक्ष्म तथा एक क्षेत्रावगाहरूप स्थित जो अनन्तानन्त' न्द्रिय पर्यातक के लिए है। एकेद्रिय पर्याणक जीवोंकी। कर्म पहलों के प्रदेश है, उनको प्रदेशबन्ध कहते हैं । एक उत्कट स्थिति एक सागरके : भाग है। हींद्रिय आदिम पारमा असख्य प्रदेश है। उनसे प्रत्येक प्रदेशमै भी इसी प्रकारका पार्थक्य है। मोहनीयक्रम की स्थिति अनन्तामन्त पुल स्कन्धीका ( एक एक समय में ) बन्ध मममे अधिक और इमोसे अन्य कर्माको उत्पत्ति होनेके | होता रहता है, उस बन्धको प्रदेशमन्ध कहते हैं। वे कारण इस कर्म को राज कहते हैं। पुलस्कन्ध ज्ञानावरणादि. मूलपति, उत्तरप्रकृति एवं. ___ भायुःकर्म की उत्सष्ट स्थिति तेतीस सागर परिमित | उत्तरोत्तर प्रतिरूप होने में कारण और मन-वचन. है। मंत्रो पञ्चेद्रिय पर्यायी पायुकम को उस्कष्टं स्थिति | कायके इलनचलन (या योग )मे उनका आगमन सेतोम मागरको है। पासो पञ्चेंट्रियके लिए उत्कट होता है। स्थिति पस्यके अमन्यातवे माग प्रमाण है। मी प्रकार उपयुक्त कर्म प्रकृतियाँ पुख और पापके भेदमे दो एक द्रिय पादिमें तारतम्य है। प्रकारकी हैं। सातावेदनीयकम, शभायुकर्म,भ: इमो प्रकार जाग्नावरण, दर्शनावरंगण, मोहनीय अंत- नामझम और शुभगोनकम ये चार प्रकृतियां पुखरूप राय और पायुः इन पांचं कर्माको जघन्य स्थिति अन्तर्मुहै। पाठ कर्म प्रतियोममे भानावरण, दर्शनावरण, हता है। वेदनीय फर्म को जघन्यास्थिति मारह गुहत की। मोहनीय पौर पन्तराय ये चार प्रसतियां तो प्रारमाके है। नामकर्म पर गोवा कम की जवन्यस्थिति पाठ मुहत यनुजीवी गुणों की घातक है। इसलिए पापरूप हो मममी परिमित है। जाती है। बाकोकी चार प्रक्षतियोंमें रो भेद है, लेमा एक मुहर्स भी न ४८ मिनट के भीतर भीतरके समयः । कि कह चुके हैं। को सातमुहर्त रहते हैं। ____ मोक्षमार्ग-म'मारमें हर एक प्राणी मुखको इच्छा दो पडो शांत नटमा एक मुहूत होता है। . 1. रखता है। किन्तु उसे पाक प्रयत करने पर भी दुःखक