पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टम भाग.djvu/५२२

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  • नैनधर्म

.४७१ सिवा कुछ हाथ नहीं आता। धनवान् से धनवान् व्यक्ति जोव और अजीव श्रादिका नामादि मालूम हो चाहे - भीम सारमें प्रकृत सुखका अनुभव नहीं करता, प्रत्युत न हो. उनके स्वरूपको यथार्थ पहचान कर श्रदान करना नई नई माकांक्षानोंको पूर्ति न होनेसे दुःखी ही होता | हो मम्यग्दर्शन है। यह सम्यग्दर्शन सामान्यतः तत्वों है। जैनधर्म का सिद्धान्त है कि सुख निवृत्तिसे हो का स्वरूप जान कर उनका यदान करने से भी होता है मिल सकता है, प्रतिमे नहीं। इसी लिए जैनाचार्योने | और विशेषरुपमे तत्त्वोंको पहचान कर उनका बहान मुक्त आत्माको परम सुखी थाहा है। किन्तु वह मोक्ष- करनेसे भो। जैसे - तुच्छन्नानो पशु भी सम्यग्द,टि है, सुख हर एकको प्राप्त नहीं हो सकता। ससारमै यदि किन्तु उन्हें जीवादि पदार्थोके नाम नहीं मालम ; सामा- कोई कठिन कार्य है, तो वह यही है : कि, अपनो न्यन स्वरूप पहचान कर थडान करते हैं अर्थात् वे अपनी • आत्माको कर्मों वा पाप पुण्यसे पृथक् कर मुक्त करना।। आत्मा को और शरोरादि जड़ पदार्थों को भिन्न भिव सम. यही कारण है कि, चारी पुरुषार्थीमें मोक्ष पुरुषार्थ को झते हैं और वही उनका सम्यग्दर्शन है। इमी का परम पुरुषार्थ माना है। उस मोक्षका कारण जैना. जो बहुत विद्वान् है, ममस्त पागमको जानता है और

चार्यों ने सम्यग्दर्गन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन जोवादि पदार्थों के यथार्य स्वरूपको जान कर उनमें

तीनोंका होना हो मोनका मार्ग वा मोक्ष की प्राप्तिका | यहा करता है, उसके भो सम्यग्दर्गन है। परन्तु जी उपाय कहा है। समस्त गास्तादिमें पारङ्गत हो कर भी तत्व स्वरूपको 'सम्यग्दर्शन-जो पदार्थ यथार्थ में जैसा है, उसको यथार्य रूपमे पहचान कर उनमें यहा नहीं करते, उनके वैसा ही मानना अर्यात् 'यह ऐसा ही है, अन्यथा नहीं • सम्यग्दर्शन नहीं होता अर्थात् वे मियादृष्टि कहलाते हैं। है दम प्रकार दृढ़ विश्वास (श्रदान )-रूप जोषके परि- जिसको प्रकृत स्वपरका वा आत्माका यदान (विश्वास) पाम (भाव) विशेषको सम्यग्दर्शन कहते हैं। विप- होगा, उसको सप्लतत्त्वका भी यदान अवश्य होगा। मी रीताभिनिवेशरहित जोवादि तत्वोंका यशान ( दृढ़ तरह जिसको यथार्थ रूपमे सातत्व का हान होगा, विवाम) ही सम्यग्दर्शन है। अभिनिवेश अभिप्रायको उमे स्वपर वा आमाका भी यहान जरूर होगा। ऐमा कहते हैं, जैसा तत्वार्थ यधानका अभिप्राय है. परस्पर अविनाभावी सम्बन्ध होनेके कारण स्वपरके ‘सा अभिप्राय न हो कर अन्यथा अभिप्रायका होना अथवा आत्माके यथार्थ यद्धानको भी मम्यग्दर्शन कर ' विताभिनिवेश कहलाता है। नावा यहानका सकते हैं। किन्तु इसमे यह न समझ लेना चाहिये कि. 'मतलब सिर्फ इतना ही नहीं है कि उन तत्वोंका | सामान्यत: आमाका ज्ञान होनेसे ही सम्यग्दर्शन हो निययमांव कर लेना । उसका अभिप्राय इस प्रकार है - जायगा ; प्रत्युत ऐसा समझना चाहिये कि, स्वपरका जीव और प्रजोवको भली भांति पहचान कर अपनको श्रद्धान होते ही प्रामामे भिन्न कर्मों का ज्ञान होगा और और परको यथाथ (ज्योंका यौ) पहचान लेना, बास्रवको कमों के मम्बन्धमे उसके पाने के वारस्वरूप प्रामवादिका पहचान कर उसे हय ममझना, बन्धको ज्ञान कर उसे जान होगा एवं उसके बाद निजेराका भी मान होगा अहितकर मानना, संवरको पहचान कर उसे उपादेय | और उसके सम्बन्धसे मोक्षका भी यहान होगा। इस "समझना, निर्जराको पहचान कर उसे हितका कारण | तरह सातो तत्वों का एक दूसरेके साथ मम्बन्ध है, इस 'मानना और मोक्षका स्वरूप समझ उसे परम हितकर | लिए धामाका यथार्य यदान होनसे सबका यपान हो 'समझना । ऐसे अभिमायको 'सम्यग्दर्शन कहते हैं। जाता है। " मसे विपरीत अभिप्रायको विपरोताभिनिवेश समझना " सम्यग्दर्शनयुक्त व्यक्तिका यहान निम्न प्रकार चाहिये । मम्यग्दर्शन होने के बाद विपरीताभिनिवेशका | होता है- प्रभाव हो जाता है; मीनिए तत्वार्य थडान वा सम्यः | धर्म-जो जीवोंको संसार दुःखोंमे मुक्त कर "ग्दर्शनको विपरीताभिनिवेयरहित कहा गया है। उत्तम पविनम्बर मुखको देता है, वही धर्म है। वह