पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टम भाग.djvu/५२६

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नैनधर्म ४७५ प्रकाश करते हैं इसलिये वे परका भी प्रकाश करते हैं। गुगणधारी जोवका ग्रहण हो जाता है। इस कथनसे सिह इसी प्रकार ज्ञान भो अपना प्रकाग करता हुआ हो। होता है कि प्रमाणवस्तु के सर्वा शोंको विपय करता है। टूमरे पदार्थों का प्रकाश करता है। इस प्रकार अपना प्रमाण दो कोटियों में बटा हुआ है (१) प्रत्यक्ष (२) . और परका प्रकाश करनेवाला निश्चयात्मक जान हो। परोक्ष । अर्थात् वस्तुका परिज्ञान दो रोतिसे होता है प्रमाण है। इसोमे वस्तों का निर्णय एवं परीक्षा होतो एक तो प्रत्यक्ष प्रमाण-हाक्षात् जान द्वारा, दूसरे परोक्ष. है, उसीगे हेयपदार्थ का त्याग एवं उपादेयका ग्रहण | प्रमाण-दूमरेको महायता द्वारा। होता है। ___ जो ज्ञान बिना किमीको सहायताले साक्षात् आत्मा . प्रमाण वस्तुको मर्वाश रूपमे जानता है। अर्थात् । पदार्थीको जानता है वह प्रत्यक्षचान कहा जाता है। जितने धर्म अथवा गुग्ण वस्तुमें पाये जाते हैं उन सर्वोको! ऐसा मान एक तो केवलज्ञानी सर्वन भगवान् से होता 'एक साथ प्रमाणज्ञान जान लेता है, इसीलिए प्रमाणका है, जो कि समस्त आवरणकर्मों के दूर हो जाने पर दूसरा लक्षामा गुणमुखनिरूपणको दृष्टिसे इस प्रकार है ममम्त लोकालोकवर्ती पढाथोंको एक साथ एक समयमें "एक गुणमुखेनाशेषवस्तु प्रतिपादनं प्रमाणम् ।" एक गुग्यके साक्षात् जाननेवाला होता है। यह जान केवलज्ञानके धारा ममत यस्तका निरूपण करना प्रमाणका विषय है। नाममे प्रख्यात है। दूमरा उन कपाय वासनाविरहित जैसे जीव कहने से दर्शन, ज्ञान, चारित्र, मुख, वोय, निष्परिग्रही (छठे गुणल्यानवर्ती) नग्न दिगम्बर मुनियों के अस्तित्व, यस्तत्व, प्रमेयत्व, आदि समस्त गुणों के प्रखण्ड । होता है जो कि टूमरेके मनमें ठहरो हुई बातको प्रत्यक्ष पिण्ड रूप जोवपदार्थ का बोध हो जाता है। यद्यपि । रूपसे माक्षात् जान लेते हैं। हम लोग दूसरे के मनको जीव कहनेसे केवल जोवन या जोवत्व गुणका हो बोध बातको अनुमान पदार्जमे किमो मकेतमे अथवा होना चाहिये। परन्तु जोव कहनेसे अनंतशक्तिशाम्तो । अभिप्राय विशेषके मालूम करनेमे जान जाते हैं, यह जीवात्माका पूर्ण बोध हो जाता है। इसका कारण यह जानना उम वातका प्रत्यक्ष नहीं कहा जा सकता, परन्तु है कि एक पदार्थ दो जितने भो गुण होते हैं वे मत्र | मुनिगण उस सूक्ष्म वानका प्रत्यक्ष कर लेते है उमे मन:- तादात्म्य रूप सधसे अभिन्न रुप रहते हैं, जैसे एक | - पर्यय ज्ञानके नामसे कहा जाता है। तीसरा उमी घड़े में जहां रूप है वहाँ रस भो है गध भी है , 'मर्श | प्रत्यक्षका भेद अयधिनानक नाममे लोकमें प्रगट है, यह भी है तथा घड़े में मर्वत्र ही रूप रस गध स्पर्श है, ज्ञान योगियों के मिवा एक मम्यभानधारी पुरुष, टेव, ऐमा नहीं हो मक्ता कि कभी घटका कोई रंग तो नारकी और तिर्य के भी होता है। तियं च पुरुषों में न हो और रस गध स्पर्श उममें पाया जाय, अथवा रंग मभीके नहीं होता किन्तु विशेष काल एव विशेष क्षेत्र- गंध रस तो हो परन्तु स्पर्श उसमें न पाया जाय, इमसे वर्तो किन्हीं किन्हीं पुरुष तियों होता है। यह • यह बात भली भांति मिड है कि धड़ा धनतगुणोंका | ज्ञान पुगलके हो स्थूल सूक्ष्म भेदोंको योग्यतानुमार अखड पिड है पोर वे गुण परस्पर सभी अभिव है। जानता है। इमो अनंत गुणों को अभिन्नताको ताटारमासम्बन्ध कहा जो दूसरेको सहायतामे ज्ञान होता है वह परोन जाता है। तादात्म्य सम्बन्ध होनेमे जहां एक गुणका कहा जाता है । लोकमें इन्द्रियों में होनेवाले भानको कथन अथवा ग्रहण होता है वहां उससे अविनाभावी | प्रत्यक्ष रूपमें व्यवहत किया जाता है। जैसे मैंने समस्त गुणों का ग्रहण वा क्धन हो जाता है । इसीलिये || अपनी आंखों से साक्षात् देखा है, मैंने अपने कानों में जीयको जीव शब्दमे भी कमा जाता है, उसे दृष्टा शब्दमे, माक्षात् सुना है, मैंने छु कर देखा है, आदि इन्द्रियों में चेतन शब्दसे, ‘ज्ञान शब्दमे आदि अनेक शब्दीमे कहा साक्षात् देखनेको लोकम प्रवध माना जाता है इसो. माता है, यद्यपि दृष्टा कहनेसे केवस्त दर्शनशक्ति विशिष्ट | लिये इसे व्यवहार दृष्टिस मध्यवहार प्रत्यक्ष माममें काही ग्रहण होना चाहिये, परन्त दृष्टा कहनसे समस्त | शास्नकार बतलाते हैं। वास्तवमै इन्द्रियजनित धाम