पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टम भाग.djvu/५३४

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नैनधर्म ४८३ ग्रहण करे, उमे द्रव्यार्थि कनय और को विशेष (गुगा वा । ही ऋजुस्वनयका विषय है अर्थात् ऋजुसूत्रनय यतमान पर्यायोको विषय करे, उमे पर्यायायिक नय कहते हैं। एक ममयमात्रको पर्यायको ग्रहण करता है । शब्दनय- निश्चयनयान्ता त वार्थि कनय नैगम, संग्रह और जो व्याकरण सम्बन्धी लिङ्ग, कारक, वचन, काल, उप- वावहारके भेद तोन प्रकारका है। नैगमनय -दो मग यादिके भेदसे पदार्थ को भेदरूप ग्रहण करे, वह पदामि से एकको गौण और दूसरेको प्रधान करके भेद शब्दनय है। जैसे-दार, भार्या और कलब ये दोनों अथवा अभेदको विषय करनेवाले एव पदार्थ के संकल्प- भिन्न भिव लिङ्ग के शब्द एक ही स्त्री पदार्थ के वाचक को ग्रहण करनेवाले जानको न गमनय कहते है। हैं; किन्तु शब्दनय स्त्री-पदार्थ को तीन भेदरूप ग्रहण संसारमें जितने भी द्रवा है, वे सब अपनो विकालवर्ती | करता है । इसी प्रकार कारकादिक भी दृष्टान्त समझने समस्त पर्यायोंसे थन्वयरूप (जोड़रूप है अर्थात् स्वीय चाहिये । समभिरूढनय-अनेक भयों को छोड़ कर जी किमी भी पर्यायमै कोई द्रव्य भिन्न नहीं है। इसमें भूत एक ही अर्थ में रूढ़ वा प्रसिह वस्तुको जाने वा कहे, उसे और भविष्यको पर्यायों ( अवस्थाओं का वर्तमानकान में समभिरूढनय कहते हैं। जैसे-गो शब्दके गमन आदि सङ्कल्प करनेवाले जानका नाम नै गरगय है। जैसे कोई अनेक अर्थ हैं, तथापि मुख्यतासे गो गाय वा बैनका व्यक्ति रोटो बनानेको सामग्रो इकट्ठो कर रहा है ; उसमे हो ग्रहण किया जाता है। उसको चलते, बैठते, मोते किमोन पूछा कि 'क्या कर रहे हो?" इसके उत्तर में मच अवस्थाओंमें गो कहना समभिरूदनय है। एवम्भ त- उसने कहा, "रोटी बना रहा है। किन्तु वह अमो नय-जो जिस समय जिस क्रियाको करता हो, उसको उसको मामयो ही इकट्ठी कर रहा था, रोटी नहीं। उस समय उस ही नामसे पुकारना वा जानना, एव. बनाता था; तथावि नैगमनयसे उसका कहना ठोक भूतनय है। जैसे-देवोंके पति इन्द्रको उसी समय है। क्योंकि उसने भविष्यको अवस्थाका वर्तमान कहना जब वे अपने सिंहासन पर बैठे हों, पूजन संकल्प किया है। संग्रहनय-जो ज्ञान एक वस्तुको अभिपक आदि करते समय उन्हें न कह कर पूजक सम्प गर्ग जातिको एवं उसकी पर्यायों को संग्रहरूप करवी (पूजारो) कहना, इत्यादि। एकस्वरूप ग्रहण करे, उमे म ग्रहनय कहते हैं। जैसे, व्यवहारनय या उपनयके तीन भेद है,१ मत- ट्रव्य कहने जीव जीवादि तथा उनके भेद प्रभेद | व्यवहारनय, २ असा तव्यवहारनय और ३ उपचरित. आदि मबको समझना अथवा मनुष्य कहजैसे स्त्री-पुरुष , व्यवहारनय अथवा उपचरितासन तव्यपहारनय । सात इ-बालक आदि सभोका बोध होना । व्यवहारनय ध्यवहारनय-एक अखगइट्रव्यको भेदरूप विषय करने. जो म'ग्रहनयम ग्रहण किये पदाधीका विधिपूर्वक (व्यव वाले ज्ञानको सातव्यवहारनय कहते हैं। न मे, जीवके हारके अनुकूल) व्यवहरण अर्धात् भेदाभेद करता है, केवलनानादि वा मतिज्ञानादि गुण हैं। पसातव्यव. उसे ध्ययहारनय कहते हैं। मे, थके भेद जीव हारनय-उसे कहते हैं जो मिले हुए विभिन्न पदार्थीको पुहल, धर्म, अधर्म, पाय और कान तथा इनके भो भभेदरूप ग्रहण करता है । जेमे, माधातुमय शरीरको पृथक पृथक भेद काना। जीवका शरीर कहना । उपचरितव्यवहारनय-उमे निचय नयका दूसरा मैद पर्यायाधि कनय है । यह कहते हैं जो अत्यन्त भित्र भित्र पदार्थोंको अमे दरूप चार प्रकारका है, १ जुसूत्रनय, २ शब्दनय, ३ समभि- ग्रहण करता है । जैसे, हाथी, घोड़ा, मकान आदिको रुदनय और ४ एवम्भ तनय 1 ऋजुस्वनय-अतीत और अपना ( जीवका ) समझना वा कहना। नय देखो अनागत दोन अवस्थाको शेड़ कर जो वर्तमान अवस्था . निक्षेप।-निक्षेपका स्वरूप पहले कह चुके हैं। इनके मावको ग्रहण करे, उसे ऋजुम्वनय कहते है ।द्रयको सामान्यतः चार भेद है, १ नामनिक्षेप, २ स्थापनानिशेष, पवस्था ममय समय में पलटतो रहती है। एकसमयवर्ती ३ ट्रष्यनिक्षेप और ४ भावनिक्षेप। नामनिदेप-गुप, पर्याय (पवस्था )को अयं पर्याय कहते हैं । यह अर्थपर्याय } जाति, द्रव्य घऔर क्रियाको अपेशा विना हो इच्छानुसार