पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टम भाग.djvu/५४६

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जैनधर्म ४६५ अधिकांग जेनी (याकक) पाक्षिक-यापकको कोटिमें। यहां यह प्रय हो मकता है कि, जब गेहूं, जी, सम्हाले जा सकते हैं। उड़द आदि अनाज तथा ककड़ी, खीरा, पाम पादि पातिक ल्यावक-जो मच्चे देव, गुरु, धर्म थोर शास्त्र-- फल भी एकेन्द्रिय जीयोंके अङ्गा है और उन्हें मब नाते की दृढ़ बडा रखता है तथा सात तत्वोका स्वरूप जान ! हो हैं, तब मांस जो पश्चेन्द्रिय जीवोंका है, कर, उमका यदान करता है, उसे पातिक याक्क कहते | उसके पनि क्या दोप है ? इसका उन्नर यह है है। यह पाक्षिक यावक व्यवहार मम्यकको गलता है, कि, मांस प्राणियोंवा शरीर है, परन्तु सब प्राणियों के , परन्तु मम्मका २५ दोयौंको बिल्कुल बचा नहीं मकता गरोरमें मांस नहीं है। गेहू', उड़द, प्राटि धान्य

किन्तु प्रत्येक पातिक सावकको "अट मूलगुप" धारण । एवं ग्राम प्रादि फल एकेन्द्रिय जीवोंके अङ्ग हैं,

., करना ही चाहिए। मदा, मांस, मधु और पांच उद: किन्त उनमें रक्त, मज्जा अादि नहीं है । इमलिए एक म्वर फलों का त्याग करना ( न खाना ), अष्ट मूलगुण न्द्रिय जीवोंक शरीरको मांस नहीं कह सकते । जैसे है। अथवा पाठ मूलगुग इम प्रकार भी हैं,- हिंसा, | गाय के दूध घऔर मांसके उत्पन्न होने का घास, पानी प्रादि झठ, चोरी, परस्त्री और परिग्रह इन पांची पापोंका | एक ही कारण है. तथापि मास सर्यघा लागोर स्थ लरोति र अर्थात् एक देश त्याग करना तया मांम, ! दुध पीने योग्य हैं; अथवा जैमे माता और महधर्मिणी मद्य और मधुको न ग्वाना ये पाठ मूलगुण हैं। इनका स्वो इन दोनों में यद्यपि स्त्रीत्व समान है, तथापि पुरुपोंको पालन करना पाक्षिक यावकका कर्तव्य कम है। जो महधर्मिगो स्तो हो भोगने योग्य होती है, कि माता। शक्ति के अनुसार अष्ट मूलगुणों का पालन नहीं करते, ६ अतएव गेई प्रादिसे मासकी ममानता नहीं हो सकती। थावक नहीं कहला सकते । मधु या शहद-मद्य और मामको भाति रहस्यों को मधु गद्य-मद्य वा शरावको एक दमें इतने सुक्ष्म जीव खाना भी मवथा त्याग देना चाहिये। कारण इममें हैं कि यदि वे कुछ बड़े हो कर उड़ने लगे तो संभार भी अमरच जोवोंका अस्तित्व है और खाने में उनका भरमै फेन जाय । मद्य पोनेसे असख्य जोवोंकी हिमा घात होता है। इन तीनोंको “तीन मकार" करते होतो है नया मद्यपायी जानशून्य हो कर नाना तरहके। हैं, जो मवंधा त्याज्य हैं। शहद के ममान मक्खनका पाप-कार्याम प्रवृत्त होता है। इसलिए यावकाको मद्य- भी त्याग करना चाहिये, क्योंकि उसमें मोक्षण क्षणमें का यावज्जीवन त्याग कर देना चाहिये । माम-जो, जीवों को उत्पत्ति होती रहती है। माम प्राणियोंको हिंसा करनेसे उत्पन होता है, उस पञ्च उदुम्बरफल-पीपर, गूम्नर, पाकर, बड़ और मांसको स्पर्श करना भी महापाप है। मृत प्राणीके कळू मर ( अन्नीर) इन पांचों पक्षों के फ ल में सूक्ष्म मांस खानम भी उतना हो पाप है, जितना जोवितको जोव रहते हैं । अतएव इनके खानेवालोको जोव हिंमा. 'मार कर खान। क्योकि- का पाप लगता है। इमलिए पात्तिकथावकके लिए यह "भामास्वपि पयास्यपि निपच्यमानासु मांसपेशी । भी त्याज्य है। इसके मिवा यावकको "रात्रि भोजन" सातत्सेनोत्पादरसज्नातीनां निगोतानां ॥" (पुरुषार्थसिद्धयुपाय) का भी त्याग करना चाहिये। क्योंकि रातिमें भोजन विना पके या पकाये हुए तथा पकते हुए भी मांममें मी जातीक जोव निरन्ता उत्पन हुआ करते हैं । इम करनेमे दिनको अपेक्षा विगेप राग (ममत्व) होता है पौर लिए मांस सेवन मर्वया परित्याज्य है। जलोदर धादि अनेक रोग हो जाते हैं। राखि-भोननझे ममान विना बना जनका पीना भी . स्थूलका भयं यह समझना चाहिये कि मिस कार्यमें दीप है। गन्नमें सूक्ष्म बम लोव भी रहते हैं जो मुह. राज्य अथवा पंचायती दण्ड हो, उस कार्यको न करें। इस. के सिवा इरादा करके किसी नस मीयको मारना (जैसे, खट. में जानके साथ ही मर जाते है। इमी लिए यावक- मल मारना, मच्छर मारना भादि) मी स्थूनहियाम शामिल है, गण जल छान कर पोते है। . खत: ऐसान करना चाहिए। .: किसो किमी ग्रन्थकारने शिष्यों के अनुरोधमे पट मूल