पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टम भाग.djvu/५४८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

जैनधर्म ४८७ देवकी मूर्ति को, जो कि त्यागधर्म की चरम मीमाका | में उसे अपने यहानको निम्नलिखित २५ दोषों बदाना दृष्टान्त है, जी भरशे देखे और अष्टाङ्ग नमस्कार करे। चाहिए । (१) शहा- जैनधर्म और उमके तत्वादिमें शङ्का पसात् अक्षत, फल या नैवेद्य अर्पण करे और माथ ही करना, (२) कांक्षा-मांमारिक सुखोंमे मचि मना, उसका मन्त्रोच्चारण करे। अनन्तर हाथ जोड़ कर भग (३) विचिकित्सा-धर्मात्माओंके मनिन शरीरको देन का वान्की वेदीके चारों तरफ तीन बार प्रदक्षिणा दे। इम ग्लानि करना, (४) मूदृष्टि महमा किमो चमत्कारको के बाद भगवन-मृति के सामने खड़े हो कर संस्कृत देखकर कुदेव, कुगुरु और कुधर्ममें यक्षा करना, (५) अनु. वा हिन्दीका स्तवपाठ करे। अनन्तर नमस्कार करके पगूजन-धर्मात्माओंके टोपोंको इमरछामे प्रगट कर मस्तक और नेवसे गन्धोदक (भगवान्का चरणामृत) दिवाना, जिममे उनकी निन्दा हो, (६) अस्थितिकरणा- लगाये। गन्धोदक लगानेका मन्त्र--- धर्म-मार्ग से गिरते हुएको स्थिर न करना, (७) प्रवा. . "निमलं निर्मलीकरणं पावनं पापनाशनं । सल्य-सहधर्मियोमे प्रीति न करना, ८) प्रभावना-- जिनगन्धोदक वादे कर्मारकविनाशकम् ॥" धर्म को प्रभावना न चाहना. () जातिमद-अपनी उम तदनन्तर मन्दिरके शास्त्र भण्डारमें जा कर धर्म शास्त. जातिका अभिमान करना, (१०) कुन-मद-मपनो कुन्न- का मनन करे और फिर जपमाला ले कर 'पामोकार' .को उच्चताका घमगड़ करना, (११) ऐश्वर्य -मद, (१२) श्रादि मन्त्रों का जप करे । पश्चात् घरमें जा कर उन | रूप मद. (१३) बनामद, (१४) विद्या-मद, (१५) अधि- कपड़ों को उतार देवे और गरीबों को निके अनुसार कुछ कार-मद, (१६) तप-मद, (१०) देव-मूढ़ता-बोतगग भोजन दे । अनन्तर पवित्रताका पयाल रखते हुए देवके सिवा लोगों को देखादेवी पन्य रागढ़ पयुक्त देवो. भोजनादि करके अपना कार्य ( रोजगार) करे। फिर का मम्मान करना, (१८) गुरु मूढ़ता, (१८) लोक मुड़ता, शामको (सूर्यास्त से पहले ) भोजन करके मन्दिर जाये (२०) कुदेव अनायतन-जहां धर्म की प्राति नहीं हो और दर्शन, स्वाध्याय प्रारती आदि करे। इसके बाद | मकती, ऐसे देवकि स्थानोंको मनति करना, (२१) कुगुरु- अपने पावश्यकीय कार्यों को सम्पन्न करे और फिर पञ्च पायतन सङ्गति, (२२) कुधम पायतन मनति, (२३) परमेष्ठीका ध्यान करके शयन करे। कुदेवपूजक पायतन सङ्गति, (२४) कुगुरुपूजक पायतन- । यद्यपि यह पाक्षिक-यावक बहु-प्रारम्भी होता है | मङ्गति और (२५) कुधर्म पूजन-अायतन-सङ्गति । इन नथापि अपने धर्म का पूरा पूरा पक्षपातो होता है और पञ्चीस दोषो मे बच कर मवेग पादि.पाठ गुणों को धारण यही चाहता है कि "किसी तरह मेरे धार्मिक चारित्रकी करना चाहिये और अपने सम्यक्षको दृढ़ रखना चाहिए। उबति होये।" इसको अपने धर्म का पक्ष है, इसीलिये | सम्यक्त्वका विवरण हम पहले लिख चुके हैं, पत: बाहुल्य यह पाक्षिक यावक कहलाता है। - भयसे यहां नहीं लिखा गया ।

यावकके प्रधानतः तीन भेद है-(१) पातिक, (२) दानिक ( दर्शनप्रतिमाका धारक ) श्रावकको धर्म-

नैष्ठिक और (३) साधक । पाक्षिकथावक का वर्णन हम के पात्रमें रक्खा हुआ घो, तेल, हौंग अथवा ऐसी गीली अपर कर चुके है। नैष्ठिक-थायक ग्यारह योगियों में | चोज जिसमें धर्म की दुर्गन्ध हो माय, मपबुन, फानी. विभक्त हैं, जिनका उमेख हम पहले कर पाये हैं। प्रव! बड़ा, अचार, घुना चुघा, अनाज, कन्दमूल और शाक उन्हीं थेणियोंका पृथक् पृथा वर्णन किया जाता है।। ( पत्तियां) न डाना चाहिए। इसके मिधा दर्शनिक म दर्गन प्रतिमा-यह नैष्ठिक यावकको पहलो श्रायकको निम्रलिखित पतीचारोंसे सर्यथा बचना चाहिए येणी है। पाक्षिक यायक जब अपनी अभ्यास अवस्या- अर्थात् अतोचाररहित पाचरण करना चाहिए। माम- में परिपक हो जाता है, तो अपने पाचरणकी शुद्धता ! त्यागके .पतीचार-चमके पावमें रक्खो हुई कोई प्रयोजनमे दर्शन-प्रतिमाके नियमों को पालन करने लगता भी वक्ष न पाना । (२) मद्यत्यागके थनीचार-पाठ है और उसकी नैठिक सजा हो जाती है। इस येणो- 'पहरसे ज्यादा समयका प्रचार, मुरब्वा, दही, छाछ Vol. Vin. 125