पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टम भाग.djvu/५४९

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४६६ लैनधर्म गोको इस प्रकार भी कहा है-मघका त्याग, मांसका। आज पूर्ण ब्रह्मचर्य पालन करूंगा इत्यादि। ५ रुप त्याग, मधुका त्याग, रात्रिभोजनमा त्याग, पांचों उदुम्बर -क्रोध, मान, माया और नामको दमन करने के लिए . फन्नीका लाग, विमन्ध्याम देवपूजा वा देववन्दना,प्राणियों भीग, लालमामे निवृत्त होने के लिए, धर्माम प्रति बढा. पर दया करना और पानी छान कर काम नाना, ने लिए जो क्रिया को जाय, उमे तप कहते है। म यावकों के लिए ये पाठ मूनगुण भी पालनीय है। क्रियाका नाम है नप वा मामायिक । अर्थात् यावको । इम मिवा अन्य कई ग्रन्थकारों ने पानिक थाप के को प्रति दिन 'ॐ नम: सिदभ्यः' 'थोवीतरागाय नमः" लिए पाठ मूलगुगों के धारण करने में माय माघ मत 'अरहन्तमिद्ध' 'गगमो परइंताग' गामो मिहावा ' व्यमनी के त्याग करने का भी उपदेश दिया है। व्यमन णमो अरहता गामो सिद्धाण णमो प्रारीयाण गमी शोक अथवा पादत को कहते हैं । जुमा खेलना, मम | उवायागगगमो लोए सवमाहणं' इत्यादि मन्त्रों का जप खाना, शराज पोना, शिकार करना, चोरी करना, वेश्या करना चाहिये। माय हो अपने किये हुए पापोंकी मेवन भौर परमबोसेवन करना इन सात बातोंके शौक | पालोचना करनी चाहिए और अपने दोपौ लिए मंमार- प्रश्वा प्रादतका त्याग धार देना ही मा-व्यमान त्याग के जीवोंमे क्षमा मांगनी चाहिए । इसमें प्रात्मा शुरु कहलाता है। होतो है अर्थात् अात्मा पर क्रोध, मान, माया प्रादिका पाक्षिक-यावक उपयुका विषयों का त्याग तो करता। प्रभाव कम पड़ता है। ६ दान-अभयदान,.माहार है, पर वह अभ्यामरुपमें। वह उनके प्रतीचारों को दान, विद्यादान और श्रीपादान, ये चार प्रकारके दान नहीं बचा सकता। हां, उनके लिए प्रयत्न अवश्य करता हैं। मुनि, ऐलक, क्षुलक, ब्रह्मचारो आदि पात्रोको . है। जीवदया पालन करने के अभिप्रायमें पाक्षिक भक्तिपूर्वक दान देना चाहिये। यदि इनकी प्राशि ग्रावक पट्कर्म का भो अभ्याम करता है। यया-१ न हो सके, तो किसी धर्मनिष्ठ शावकको पादरपूर्वक " देवपूजा-यावकको प्रतिदिन मन्दिरमें जाकर अष्ट द्रव्यमे ) ( प्रत्युपकारकी बागा न रख कर ) भोजन कराना । पूजा करनी चाहिये। वर्तमानमें श्रावकगण पनि दिन चाहिये। गरीबों को करुणा करके खानेको अन्न वा ; मन्दिर में जा कर भगवान्के दर्शन करते और स्तुति यादि | ओढ़नेयो वस्त्र देना चाहिये । पर-पक्षियोंको चिलाना पढ़ करः प्रनत मा फल चढ़ोते हैं, यह भी देवपूजाम ! चाहिये। इसी प्रकार रोगियों को औषधं देना और . शामिल है। २ गुरुपास्ति-निर्गन्य ग्ररु वा माधुलीं- भयभीत व्यक्तियों का भय दूर करना चाहिये। को सेवा करना और उनसे उपदेग सुनना चाहिये, किन्तु । विद्यार्थियों को शास्त्र दैना वा पढ़ाना चाहिये। इन इस पञ्चमकालमें दिगम्बर गुरुको प्राप्ति होना करिन है, चार प्रकारके दानोमये कुछ न कुछ प्रति दिन दान करना इसलिए उनके गुणों का स्मरण करना चाहिये और उनके | यावकोंका दानाम हैं। प्रभायों में सम्यग्दृष्टि जानवान् विहान् ऐलक, छमक या| जैनग्रन्याम पाक्षिक-यापकोंको दिनचर्या के विषयमें ब्राह्मचारी ल्यागोको विनय करना और उनके पास बैठ इस प्रकार लिया है:- कर उपदेश सुनना चाहिये। .:"प्रात:काल सूर्योदय से पहले उठे और शय्या पर दी . ३ स्वाध्याय शान्ति नाम और अज्ञान दूर करने बैठ कर नौ वार "एमोकार मन्त्र का जाप करें। इसके के लिए जैनधर्म सम्बन्धो शास्त्रों का पदना स्वाध्यायः बाद शौचादिमे निवृत्ती पवित्र वस्त्र पहन कर जिनेन्द्र का इन्ताता है। (४)मयम-मन तथा स्पगन, रमना, भगवान के दर्शन के लिए मन्दिरमें जावे। मन्दिरमें प्रवेश घाणचक्षु और कर्ण इन पांच इन्द्रियों को वशीभूत प.र. करते समय "जय जय जय नि:महि निमहिं नि:मरि" नेके लिए प्रतिदिन प्रात:कालमें नियम वा प्रतिज्ञा कर यह मन्च उचारण करना चाहिए। इस मन्यके उचारण नेको मंयम कहते हैं। लेमे-पाज में दो बार भोजन | करनेमे, यदि कोई देव प्रादि दर्शन करते हो तो वे , करूंगा, अमुक के घर,या अमुकको गली तक नालंगा। सामनेसे हट जाते हैं। अनन्तर योसगग योजिनेन्द्र