पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टम भाग.djvu/५५१

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नैनधर्म . पाना, शराब पीनेवाले के माथ ग्वाना बसी हुई चोज गत्य तीन प्रकारको है-१ मायाशय, २ मियागय और . खाना। (३) मधुल्यागके प्रतीचार-जिन फूलोंमे वस- ३ निटानगल्या मायायत्य-अपने भावों की विशडताके - नोव पृथक् न झे सकें (अमे गोभी) उनको.खाना, लिए प्रत. धारण करके किसो अन्तरङ्ग लज्जा मायने मुरमा प्रादिमें मधु डालना । (४) उदुम्बरत्यागके पती वा किसो मांसारिक प्रयोजनमे अथवा प्रपनो कोनि. चार-बिना जाने हुए किमी फलको खाना, यिना फोड़े फैलाने के अभिप्रायमे प्रत धारण करनेको मायागय कहते हुए ( भीतर कोई जीव है या नहीं, इस दातको विना) हैं। मिथ्याशय-व्रतोंका पालन करते हुए भी चितमें जांच किये) फलादिका खाना, ऐसे फन्नोंको खाना जिन- पूरा यहान न होना अर्थात् उन वमों में मात्माका कमाण में जीव होनेकी सम्भावना हो। (५) तत्यागके पतो होगा या नहीं, ऐसो गला रखना मिप्यायल्य कहलातो चार-पाका खेत देखना, मनोविनोदके लिए ताश | है। निदानशल्य-इस प्रकारको इच्छामे वताका पालन . पाटिके खेल में हार जीत मनाना 1 (6) वेश्यात्याग के प्रती करना कि, 'परलोकमें नरक. निगोट और पशगतिमेच चार-वेश्याओंके गोत, नाच श्रादि सुनना या देखना, । कर मेग स्वर्ग बादिमें जन्म हो।' इन शोको इदयसे उनके स्थानों में घूमना, वेण्यासतों को मङ्गति करना । (७) निकाल कर निम्नलिखित पांच प्रणवतों का पालन करना अचौर्य के प्रतीचार-किसीके न्यायमिह भाग वा हि चाहिए। . : . को छिपाना। (८) शिकारत्यागके पतीचार-शिका (१) अहिंसाएव्रत-अभिवाय पूर्वक नियम करने. रियों के माथ जाना वा उनको मगति करना । (८) को व्रत कहते हैं । गृहस्थों के ममन्त पापोका त्याग होना परस्त्रोत्यागके प्रतीचार-अपनो इच्छासे किसो स्त्रीके असम्भव है, इसलिए वे अणवत अर्थात् स्य नहरसे साथ गन्धर्व -विवाह करना, कुमारी कन्यायोंके साथ व्रतीका पालन करते हैं। समन्तभद्राचार्य ने अहिंसाए. विषयगेयनकी इच्छा रखना। (१०) रात्रिभोजनत्याग व्रतका लक्षण म प्रकार किया है- - । .. के प्रतीचार-रात्रिका बना हुआ भोजन दिनमें खाना, . . संकल्पाकृतकारितमननाद्योगत्रयस्य परसलान् । ... इत्यादि।

न हिनस्ति यत्तदाहुः स्थूलधादिरमणं निपुणाः " .

दर्शनिक थावकको पानिक थावकके मम्पर्ण । अर्थात् माप (इरादा) करके मन-वचन-फाय एवं आचरणौका पालन तो करना ही पड़ता है। उसके सियासत कारितं अनुमोदनामे वसनीयों को हिंसा ( यथ) निम्नलिखित आचरण भी उमके लिए पालनीय है। नहीं करना, हिमाणवत कहलाता है। इस प्रतमें । दर्शनिक थावकको मद्य, मांस, मधु और अचारका भोजन वा औषधके उपचार एव पूजा के लिए किसी भी - व्यवसाय न करना चाहिए। मद्य, मांस खानेवाले.यो. । हीन्द्रिय, बोभिय, चन्द्रिय और पवेन्द्रिय जोषका पुरुयोंकि माथ शयन पोर। भोजन न करना चाहिए । घात करने का इरादा नहीं करना चाहिए और ममिक किसी तरहका नगा न करना चाहिए। अपने अधीन | कार्याको प्रगमा ही करनी चाहिए । म्थ ल गप्दमें मत. म्योपुत्रीको धर्म मार्ग में दृढ़ करनेका पूर्ण उद्यम करना लब यहां निरपराधियों को मरम्प करके 'हिमा करने चारिए। .. . . : . 'है; क्योंकि पुराणों में लिखा है कि अपराध कान-

जानानन्द थावकाचारमें लिखा है कि, दर्शनपतिमा.. वालो को चक्रवर्ती पादि यथायोग्य दगड दिया करते थे

घालेको बाईम प्रभक्ष्य न रवाना चाहिए। जो अणुव्रत के धारक थे। इममे जात होता है कि . २य प्रतप्रतिमा-जो माया, मिथ्या पोर निदान इन | दशादि देनमें न्यायप य क नो प्रहत्ति होती है, उसका तीनों गस्योको छोड़ कर पांच प्रणवतोंका प्रतीचार, विरोध अण प्रप्त धारक के लिए नहीं हैं। श्रीअमितगति- रहित पालन करता है तथा सान प्रकारके गोलयतोंको | प्राचार्य अपने "सभाषितरतमन्दोर में लिखते हैं- भी धारण करता है, वह 'यतमतिमा'का धारक 'प्रती "भेषमातिभिप्रादिनिमित्तेनापि नागिनः ।" यायका पाइलाता है। मनके कोटको शत्य कहते है। . प्रथमानुप्रतासहिंसनीयाः कदाचन " ०१७ - ...