पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टम भाग.djvu/५७२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

नैनधर्म ५१६ माधारणतः माता.. पिता, पिटव्य, मामा, ज्येष्ठधाता, ! धोके रहते हुए भी, धर्म विवेचनामें भी काधर्म चारित्व - ससुर, आचार्य, काकी, ताई, मामो, भावज, मासु, होनिया गया है। जैसा कि जैनाचार्याने प्रगट किया आचार्याणी, फफी, मौसी. बोर बड़ी बहन मन के मरने पर है-"चारित्त खलु धम्मो" । यदो धर्म शब्दको व्याख्या हौरकम करनेको प्रथा है। दूनमैमे यदि किमोका एव उसका लक्षण है। देशान्तरमें मरगा हो तो सवाट पाते हो चौरकर्म चारित्र दो कोरियोम बटा हुअा है-(१) थाय कोश कराया जाता है। किन्तु यदि एक माम बाद मवाद } चारित्र, (२) मुनियोका चारिख। थावकोंक चारित्रको मिले तो चीरकर्म करानेको अावश्यकता नहीं। ' विकलचारिख वा एकदेश चारित भो कहते हैं और . .भनागारधर्म पा जैन मुनियों का आनार -हैन मनिशे : मुनियों के चारित्रको सकलचारित या सर्व देशचारिख । का क्या प्राचार है -क्या धर्म है, इसका विवेचन वारने जिस चारित्र के पालते हुए भो प्रात्मा केवल वम हिंसामे मे पहले धर्म शमकी दो शब्दों में व्याख्या कर देना आय ही अपनेको बचा सके ( स्थावर हिमासे न व चाम) ‘श्यक प्रतीत होता है। . वह चारित एकदेग चारित्रको कोटिमें पाता है, और धर्म शन्दको व्याख्या व्याकरणशाम्नानुमार जना- जिम चारित्रके पानते हुए जोव अपनेको वम तया स्थावर चाोंने इस प्रकार की है, जो समारस्थ जीवोंको दोनों प्रकारकी हिंसासि मया बचा लेवे, वह चारित्र उममे निकाल कर उत्तम मुवमें-जहां कभो टुःका सकलचारित्र अथवा म देश चारिख कहलाता है। अब लेग भी न हो-अर्थात् मोक्ष सुखा ले जाय, उगे धर्म तक संमारी जीवके प्रत्याग्यानावरण कपायका उदय रस्ता कहते हैं। यह धर्म शब्द 'ध' (अर्थात् 'धारण करना) है, तब तक एमके सयंदेश पारित नहीं हो पाता ; अर्थात् इस धातुमे बना है। यह तो धर्म शब्दका व्यास्था स चारिवको धारण कर भात्मा कर्मका नाश कर सके व्युत्पत्ति-सिद्ध अर्थ है, इसका लक्षण एवं स्वरूप निरी ऐसी अवस्था भी उसे किसी तीव्र पुण्योदयमे ही मिन्नती पण यह है कि, जो वस्तुका स्वभाव हो वही धर्म है। यदि विना तोव पुण्य के हो उत्तम अवस्था पास कर कालाता है । “वस्थ सहावो धम्मो" इस लक्षणसे प्रत्येक लो जाय, तो क्यों नहीं मर्वसाधारणको मन्मार्गको वह धर्म वाली मिद होती है, जिमका जो स्वभाव है और विचार झकाव, मामग्री, सहवाम, माधन, योग्यता वही उसका धर्म है। घटना घटत्व (जलधारणा, प्रादि कारण-कलाप मिन्नते। इसलिए पारमा तभी फांके जनानयन प्रादि ) धर्म है, वस्तका वनत्व (गोतवारण जीतने में समर्थ होती है जबकि वह कपायों,पर बहत अंशों- पदार्थाच्छादन चादि ) धर्म है, छवका क्वत्व (यातपः में विजय पा लेती है-यह, कुटुंछ, स्त्रो, पुत्र पाटि मर्य वारण, वर्षगानाल आदि ) धर्म है, इमो प्रकार जोवः। मम्पत्तिमे विरत बन जाती है। बिना ऐमा हुए मुनिधर्म का जानना, भाचरए करना-- तप, मयम, ध्यान मादि ! को शोर मामाको प्रति ही नहीं झुकती। प्रवृत्ति दूर दारा आमाको विशद चारित्रधारी बनाना -धर्म है। रहो, वैमा उच्च विचार भी नहीं उत्पन्न होता थोर न भित्र मा प्रत्येक जड़-वस्तु के धर्म में प्रयोजनमिति नहीं है, इम पदामि मोह ही छटता है। इस प्रकारका मोर कगने लिये उसका कुछ, मौ निकरण न करके जीवके धर्मका वाला कपाय है। उसके अनन्तानुबन्धो, पप्रत्याख्याना. हो निरूपण किया जाता है-- . . . मरण, प्रत्याख्यानावरण पादि नाम, जिसका वर्णन ____ जब वस्तु-स्वभाव हो धर्म का लता है और जीवको इम'कर्म मिहान्त' भी कमें कर चुके हैं। । शुभ एयशाचरण द्वारा चरम ठव्रत बनाना हो धर्म जिम समय प्रामा, सफल चारित्व के धारद करने में का यात्या सिह पर्य है. तब जोवझा. वस्तुम्वभाव वाधा पहुंचानेवाले कपायोंका उपगम या चय करके मुख्यतया मारिख हो पड़ता है। कारच यह कि जीवको उन पर विजय पा लेतो है, तभी वह मुनियम में पदार्पण चारिख ही संसार दुःवामे विमुक्त कर मुना धनाना है। करती है, उमगे पहले वह भावकाचार ही पलतो है ! इसलिये शान, दर्शन, मुख, योर्य, पमिव भादि पनेक । पाकाघारम भी प्रामा क्रममे पति करती है, मवमे