पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टम भाग.djvu/५७४

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जैनधर्म . तया बिना पाले मुनिपद ग्रहण नहीं कर मकते अथवा । मोहित परिणामयुक्त नहीं है, तो परिग्रहका सम्बन्ध भी म निधम का पालन नहीं हो सकता। अशक्य है। क्योंकि यह मेरा है' यह ममत्वभाव किमो जैनशास्त्राम परिग्ररके २४ भेद किये गये हैं। वस्तुसे, चाहे वह मजीव हो चाह निर्जीव, तभी तक ही उनमें १५ भेट प्राभ्यन्तर परिग्रहके हैं और दश भेट मकता है, जब उसके प्रति कुछ गग-भाव है। वा परिग्रह । ग्राम्यन्तर परिग्रहमें पारमा | यो गगभावके बिना किसो भी प्रारम-मिन पदार्थ में जितने भी कमजनित वैकारिक भाव हैं, वे मभो ग्रहण | अात्मा ममत्व भाव नहीं हो मकता । जहां तिन. किये जाते हैं। जैसे-मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धीकषाय, तुपमाव भी परिग्रह है, वहां रागप्रयत्ति नियममे माननी अप्रत्याग्न्यानावरणकषाय, प्रत्याग्यानावरगकपाय, सज्व. | पड़ेगी। बिना रागभावके किमो वस्तुका रक्षण, अर्जन लनकपाय, हाम्यभाव, रतिभाउ, अरतिभाव शकिपरित प्रादि कुछ भी नहीं हो सकता। इमलिये मुनिधर्म वही गाम. भरापरिणाम, घृणाभाव, स्त्रोवेद.द, नमक वोरवत्ति महापुरुप धारण वारता है. जो समस्त वाद्य- वेद। इन चौदहो अन्तरंग विकारभावोंको जीतते हुए परिग्रहम मम्बन्ध एवं ममत्वभाव छोड़ देता है। समस्त मुनि अपने परिणामको गगध रहित-धीतराग! वापरिग्रहका मर्वथा त्याग विना किये मुनिधर्म का बनाते हैं। मार्ग ही नहीं प्राप्त हो सकता । एक बात यह भी ध्यान ____ वाद्य-परिग्रहके १. भेट इस प्रकार है-खेत, देने योग्य है कि वाध्यपरिग्रह के ल्यागमे इतना ही प्रयो। मकान, मोना, नांदी, धन, धान्य, दामो, दाम, वस्त, मन नहीं है, कि केवल उमका मम्बन्ध न रकवा जाय, और बरतन । एन दश मेंदों में मारभरका ममस्त परि। किन्तु अन्तरंगमें उमको वासना भी जाग्रत न रहे, वहां ग्रह गर्मित हो जाता है । खेत मकानमें ममम्त जमीन, तक उसके त्यागसे प्रयोजन है। अन्यथा जो किमो कारण अमीदारोका परिग्रह पा जाता है। मोना-चांदों में मन व जगालमें जा बमे हो, वहां नग्न रहते हों किन्तु धर. धातुएँ और रुपया. मा, जवाहरात पाटि पाशाते हैं। मम्पत्तिमें, एवं कुट म्नमें जिनको वामना लग रही हो. धनमें गौ, भैम आदि पश और पक्षो पा जाते है । धान्यमें | | ऐसे लोग भी मुनिकोटिम मम्हाले जा सकते हैं भोर वेसी गह चावत जी आदि मभो धान्य पा जाने है। दासो. दशामें मोतमार्ग प्रत्येक माधारण पुरुष के लिये भी "दाममें मन कर्मचारो, नौकर, म्ती-पुत्रादि कुटम्म या जाता सुलभ हो जायगा अथवा नान रहनेवाला धानक भी "है। वस्त्र पौर बरतनमें मव प्रकारके वस्त्र और पात्र पा| मुनि ममझा जा सकता है। परन्तु उमक राग है, जाते हैं। ऐसा कोई भी वाद्यपदार्थ नहीं बचता जो इन | पढायों में मोह है; मलिये वह मुनिकोटिम किमी दय भेदाम गर्भित न होता हो। दामोदाम और पशुपक्षी प्रकार भी नहीं मम्हाला जा मकता। पतएव मुनियों को स्त्री पुत्र कुटम्ब पाटि परिग्रह मचित्त ( मजोव) परि- पंतिमें यही मम्हालने योग्य हैं, जिनका परिग्रहमे सम्बन्ध प्रहमें सम्हाला जाता है और निर्जीव परिग्रह प्रचित्त छूटने के माय.हो अन्तरगमें उससे ममत्वभाव भी छट “परिणाम। . . यदि मुनियों के लंगोटी मात्र परिग्रह भी मान निया इन दश प्रकारके वाद्यपरिग्रहों का मर्वथा त्याग | जाय, सो उम लंगोटमे ममत्वभावका रहना, उमके करनेवाने महात्मा हो मुनिपट धारण करने के पात्र हैं। लिए थावकोंमे याचना करना, एक संगीटके पद हो जिनके इन परिग्रहोममें कोई भी एक परिग्रा अय जाने पर उमे धो. कर सुखाने के लिये मरे लगोटका गिट रहता है, वे मुनि कहनाने के पात्र नहीं हो होना तथा उमको चौरमि रक्षा करना, धोनका प्रारम्भ मकते। कारण मुनिपद में बोतरागताको मुख्यता है। करना आदि गय धाते मुनिधर्म के एवं वीतरागतापूर्ण वोतरागता परिपका त्याग बिना किये कभी पा नहीं निमृत्ति मार्ग के सर्वथा प्रतिकूल हैं। इसलिए सुनिषद मकतो जितने घाम परिपाका सम्बन्ध है, उतने ही सबधा परिग्रह-रहित नग्न अवस्था में ही होता है: मि पामा मूर्शित वा मोहित परिणाम है । . यदि | अन्यथा मार्गाशहन समझना चाहिये . : .. ___Vol. VI. 131 का हो ।