पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टम भाग.djvu/५८१

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५२६ जैनधर्म वृत्तिपरिमख्यान -भोजन में मर्यादा करना, घरोको । प्रजानवश होनेवाले टोपी के लिए मुनियों को उनके .. मख्याका नियम करना, जैसे-चार घर घूमने पर.भो| टोपामुमार दण्ड देते हैं । दगड लेनेवाले मुनि भो यदि निरन्तराय भोजन मिलने को योग्यता नहीं मिन्नी अपनो मन ममझ लेते हैं पोर उमटगड़को सुधार सो फिर उस दिन भोजन नहीं करेंगे, अथवा मार्ग में | मार्ग ममझ कर माल परिणामोंसे ग्रहण करने हैं। .. यदि 'अमुक'सूचक चित होंगे तो भोजन लेंगे अन्यथा फिर पूर्ववत् विशकता एवं समुद्रति प्राम कर लेते है। . नहीं. १ प्रकार जो मुनिगण कठिन प्रतिज्ञा करते हैं। किमी लघुदोपको प्राचार्य के समोप निवेदन करने वह वृत्तिपरिसख्यान तप कहलाता है। को पालोचन प्राययित्त करते हैं । 'गुरुकी पाजान. अन्तरगतपके छ भेद ये हैं-प्रायशित्त, विनय, मार पपने टोपोंको भाग्नीचना करना अर्थात् मेरे नमो याहत्य, स्वाध्याय, व्य सर्ग और ध्यान। अपराध मिथ्या हो जाय, पूम प्रकार आपने दोषों का जो प्राययित्त तप-किमो व्रतमें दूषण पाने पर शान्तानुसार पचात्ताप किया जाता है .वह प्रतिक्रमण प्राययित्त है। एव प्राचार्य द्वारा दिये गये दगड विधानसे पुन: व्रतको | कोई टोप पालोचनमे दूर होता है, कोई प्रतिक्रमणामे राम कर लेनेका नाम प्रायथित है । जिस ममय दूर होता है और कोई दोनों के करनेसे दूर होता है। जो मात्मा कपायको तीव्र परतन्त्रतावश किमी अनुपादेय दोनोंसे दूर होता है, उसे तदुभय-प्राययित कहते हैं।' माग का अनुसरगा कर लेता है, उस ममय फिर उमी ममक्त पत्र पान एवं उपकरणों के विभाग कर पूर्व प्रापं मार्ग पर नियोजित एवं दृढ़ करने के लिये | देनेको विवेक-प्रायश्चित्त करते हैं। प्रायवित्त मूलमाधक है, विना प्रायशित्तके प्रारमामे | शरीरमे ममत्व छोड़ कर ध्यान करने की कायोत्सर्ग होनेवाली भूलकः मार्जम सिमो प्रकार हो नहीं मकता ।। और प्रायरित्तरूपमे ध्यान करनेको व्यु सर्ग मायपित्त प्रायशिनशास्त्रों जाता प्राचार्य शुद्ध एवं मरत परि | कहते हैं। अनशनादि तपोको धारण करना तप. गामामे-केवाल धर्म रक्षाको बुडिमे--प्रमादय वा प्राययित है। कुछ नियत दिनों के लिये दोनाका छेद करना छेट:प्रायरित्त है.। दोप करनेवालेको जहां पर पाय पूर्वक शरीरको पीड़ा पहुचायी जाती है अथवा | जहाँ शारीरिक पीदासे मारमा बडित एवं शुन्य होसी है, मही कुछ कालके लिये सघसे बाहर कर देना परिहार कर्मबंध होता है । सा शारीरिक क्लेश यहाँ सर्वथा पर्मित है। प्राययित्त है। किसी बड़े दोप पर दीक्षाका मर्यथा छेट कर पुनः नवीनरूपमे दोक्षा.देमा उपस्थापना प्राय.. कारण शास्त्रकारोंने पतलाया है कि बिना शरीरसे ममत्ल छोडे पित है। जमे जैसे टोप होते जाते हैं, उन्हीं के भनुमार एवं विना कपायोंका दमन किये काफी निरा अशक्य है। आचार्य मुनियोंको प्रायथित्त देते हैं । कपायोंकी तीव्रता पर्वत, नदीतट, क्षतल आदि स्थानोंमें जो तप किया जाता है यह मात्मशुद्धिके लिये ही किया जाता है । भात्मशुद्धि विना एवं कभी कभी निमित्तको प्रवलसामे मुनियों हारा भी उन. के पाचरित पाचार एवं गमनक्रिया प्रादिमें, भावों की सप किये होती नहीं, तपकी सिद्धि विना शरीरसे मम छोडे या । मनिनता पादिमे कभी कभी कुछ दोष होने के कारण कार्यक्लेश विना किये नहीं होती, और जहां शरीरस ममत्वका भावशुहिम तर प्रा नाता है ; उमौके परिहारार्थ यह रयाग है एवं पोतराम निष्प्रमाद परिणाम हैं, वहां कपायमाव , प्रायचित्त विधान है। कमी नाम नहीं होते, एसी स्थिति में यह काययलेश विशुद्धिका विनय तप~मम्यग्ज्ञानमें बड़े ऐसे गुरुपों, उपाध्यायों ही कारण होता है। यदि मुनियोंका फायलेश दुःसहारण | और विशेष तपखियोंकी विनयं करना एय' सम्यग्द हो, तो बिना किसीकी प्रेरणाके एकात अंगहमे रहनेवाले मुनि | ॐनकी दृढ़ता रखते हुए मम्यंगमान' चोर चारिखको उसे करते ही क्यों ? परंतु उनकी प्रति केवल संमारमोचन | विशेष प्राप्तिके लिये उद्योगशील रहना विनयतप है। पा शमिमाप्ति के लिये ही है । इस महान् उच्च उदयको रखने वयाहत्यसप-प्राचार्य, उपाध्याय व विशेष तपासी । पासे मुमि, उस फ्लेशसे कभी सिम नहीं होते। इतना अवश्य है. तथा मुनियोंकी मेवा संयपा" वा परिचर्या करना Katarपाम ,पही तरतरते।' नयात्वत्तप . . . "