पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टम भाग.djvu/५८२

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जैनधर्म १२० . स्वाध्याय तप-सम्यग्जानको हदि एवं संयमको जन्मसिद्ध का रताको छोड़ देते हैं और नकुल सर्प, सिंह रक्षाके लिये जो शास्त्रों का चितवन, मनन, प्रच्छना, शुद्ध } हिरण. श्रादि जीव महचर भावमे बैठत है। - घोपण, धर्मोपदेश आदिमें मत्ति रखना स्वाध्यायः | ____क्षुधा-जिस समय मुनि कई उपवास कर चुकी हैं, सुधा उनके शरीरको स्थितिम भो बाधा डालने लगती - व्यु सग तप-एकाग्रचित्त ममा भारभ ओर | है, उस समय भो यदि कहीं पाहारको योग्य विधि म परिपमि विरह हो अहन्त, मिह अथवा शुद्ध निजात्मा मिले तो भो वे उमे कर्म जनित प्रावस्य ममझ शान्तिम का ध्यान करना, व्य सर्गतप कहलाता है। तपमें दत्तचित्त हो जाते है और क्षुधा परीपहको बिना ___ ध्यान तप-मुनियों के समस्त तो में प्रधान तप ध्यान | खेदके महम करते है। है। इसी तपमे वे कर्मों के नष्ट करने में समर्थ होते हैं। ____षा-हमी प्रकार ज्य हमासके सूर्य-सन्तापमे जिम मुनियों का मुख्य कर्तव्य ध्यान ही है। समय विना जलके बड़े बड़े वृक्ष भी सुख नारी है, उम यह अन्तरगतप मुनियों द्वारा पूर्णतया पालन किया । ममय उपवामोंकी गरमो और पर्वतों पर मध्याहमें बैठ जाता है । इम तपका केवल आग्मीय/भायोंमे मम्बन्ध है। कर ध्यान नगानेको गरमोमे मुनियों के गले सूख जाते हैं। वाचतपमें वाद्यपदार्थ एवं शरीर प्रत्ति प्रधान है। फिर भी पाहारको विधि न मिनसे उम प्यामकी इसीलिये उमे वाद्यतपके नामसे कहा जाता है। एपाको विना खेदके सहन करते हैं और किचिन्मात्र दोनों प्रकारका तप पारमाको उमी प्रकार शुद्ध बनाता भो चित्त में विकारमाय नहीं जाते। है, जिस प्रकार अग्नि सुनको सपा कर शुद्ध बना | शीत-गीतकालमें जम लोग ठंडी हवा पीर वर्षा देती है। इसीलिये तपको मोक्षका-कर्म निर्जराका होने के कारण घरके भीतर अग्निसे तापते हैं, तब प्रधान अंग कहा गया है। मुनिराज या तो तुपारयुक्ता पर्वत या नदो तट पर इसके मिधा जन-मुनि क्षुधा, पियामा प्रादि बाईम नग्न हो कर ध्यानमें निमग्न हो जाते हैं। गोतको वाधा. परीपहीको सहते हैं, जिसका विवरण नीचे लिखा का अनुभव तनिक भी नहीं करते। • जाता है- उण-योम ऋतुम भी गरमोकी तीन वाधा महन जैन मुनि कितने शांत एवं परम वीतराग होते हैं, करते हैं, परन्तु परिणाममि किञ्चिन्मान भी खेद नहीं इसकी परोना उनके उपसर्ग सहमसे होती है। कितना हो कोई घोर उपसर्ग (मागोंके नाश तकका) क्यों।. देशमशक-जङ्गलमें, ध्यान में बैठे हुए मुनिराजके शरीर न करे, पर मुनि तनिक भी खेद एय' क्रोध नहीं. पर बड़े बड़े जहरीले मच्छर, डांस, चिकू, ततैया, कान. करते । उपमर्ग के समय घे ध्यानस्थ एवं मोनो बन जाते खजूरे, सपं प्रादि नीव रेंगत एवं काटते हैं परन्तु ध्यानो हैं। उनका शरीर नियल प्रकम्प हो जाता है, माय ही मुनि उन्हें अपने हाथसे नहीं हटाते । वेदयमें कष्ट पहुंचानेवाले के प्रति दुर्भाव नहीं लाते, स्त्री-स्तियों के हाव-भाव-विलाीको देखते हुए भी, किन्त विचारते है कि 'यह मव काम पूर्व-मचित | उनके कटाक्ष विक्षेपादिके होते हुए भी, मुनिराज किञ्चिन्- 'दुष्कर्माका फन्नम्वरूप है। यदि ऐसा न होता तो ऐमा माय भी काय विकार एवं लज्जाभावको माम नहीं होते, निमित्त : क्यों उपस्थित होता,-यह कष्ट पहुंचाने । किन्तु निर्विकार स्वनाम-निजामा में लीन हो जाते हैं, वाला व्यक्ति . हमारे कर्म भारको (फन्न दिन्ना कर), समलिए स्त्रो परीपहको जीतनमें उन्हें कोई कष्ट नहीं इसका बना रहा है। इसलिए ये उसे अपना मित्रही होता।, ।' • समझते हैं । यह अप्ति जैन मुनियोंकी भयग्नही मीच पर्या-जो मुनि पहले राजपुत्र थे, पालकी, साथी, साधक है । उनके परम यान्त परिणामोंके प्रभावसे | रय पादि मुखकारो सवारियमि गमन करते थे, विना नाम उनके पास पाये.प सिक.लीव भी अपनी । सवारीके जिन्दोंने कभी गमन ही नहीं किया वही प्रम