पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टम भाग.djvu/५८३

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५२८ नैनधर्म मुनि-पयस्याम नगेपर च्यठको गरमोमे उचात वानमें घातक निमित्त मिलने पर भी कमो क्रोध भी घनसे है। कंकड़ों के धुभाने पर जिनके पैरोंसे रस निकलता करते । उस समय वे यही सोचते हैं कि कर दो माता है, फिर भो कोई प्रतीकारका उपाय न स्वयं करते / क्या हानि करेगा, यदि मुझे कोई मारता है तो मो- है, न फगते हैं और न उस परतिमे पोड़ा ही मानते | क्षणिक शरीर पर हो उमका कुछ प्रभाव भले ही पड़े, मोका नाम 'चर्या परोपह है। , परन्तु मेरी नित्य पात्मा पर उनका भी कोई माय भग्न-वस्त्रों में हिंसा, रक्षण, याचन यादि दोष होने में नहीं पड़ सकता । इस प्रकार के तत्वविचारसे मुनिगप उन्हें छोड़नेमें किसी प्रकार ग्लानिन माननेवाले, किसी प्राक्रोश-परोपक्ष विजय करते है। . . . प्रकार इन्द्रिय-विकार न लानेवाले मुनि नाना-परी. |. वध--मो प्रकारके विचारांसे वे वधपरीपद भी पहमें विजयी होते हैं। बीतते हैं। पति- जो इन्द्रियोको वश कर चुके हैं, स्त्रियों के ____ याचना-कितने ही उपवास क्यों न कर सुज हो, परीर . गायन प्रादिशब्दमे शून्य एकांत गुहा, खंडहर, मठ, ] कितना ही शिथिल क्यों न हो गया हो, फिर भी यदि जङ्गल, उमगान आदिमें ध्यान लगाते हैं, पहले भोगे भोजनको प्राप्ति निरन्तराय विधिमार्ग से नहीं हो सकी। हुए भोगका काभी चिर.में स्मरण भी नहीं करते और | तो मुनि यावकके धार पर याचनातत्ति अथवा भाषा- न कमो परिणामों में दुःख ही करते हैं; वे मुनि परति । द्वारा या शरीरहारा ऐसी क्रिया नहीं करते शिमम विजयो होते हैं। उनको इच्छाएँ भोजन के लिये लालायित हों, वे सदैव निपद्या-प्रतिज्ञा करके जो एक दिन, दो दिन, चार ) याचना-विजयो रहते हैं। . . . . . दिन यथाशति बैठ कर ध्यान लगाते हैं, जो नियत ___ पलाभ-इसी प्रकार बहुत दिन भिक्षाके लिए घूमने किये हए यासनसे ही बैठे रहते हैं, कितनी हो| पर भी यदि भोजनकी सुविधा (निरन्तराय शह पाहार पोड़ा या उग होने पर भो जो रचमान भो गरोरसे को योग्यता नहीं हुई, तो वे उसे भोजनका पताम सकम्प एवं चलायमान नहीं होते, वे मुनिराज निपद्या नहीं मानते और उमीम काँका संवर समझते हैं। परोपह-विजयी कहलाते है। रोग-यदि उन्हें पूर्वकर्मके उदयसे कोई रोग हो जाय, भय्या:--मुनि दिनमें सोते नहीं, रात्रिको आत्म-चिन्तन कोड़ा हो जाय या अन्य वाधा हो जाय तो उसके पाराम पोर ध्यानमें अर्धरात्रि बिताते हैं। जिस समय जगत् | करने के लिये न तो भावना हो करते हैं, न किमाने । भोग-विलाम एवं निद्राम भासत रहता है, उस ममय उसके प्रतीकारार्थ कुछ कराते हैं, और न स्वयं हो उस मुनि ध्यानधारा अात्मस्वरूपका साक्षात् अवलोकन करते · का कोई प्रतीकार करते हैं। किन्तु यही विचारते हैं १, वह उनके जागरणका समय है । रात्रिके तीसरे कि 'पूर्व-मञ्चित कर्मका ही यह फल है। अच्छा है, कर्म पहर कवन दो घटेके लिये, एक ही करवट ओर एक भार हलका हो रहा है।' यही रोग-परोपका विजय । हो घासनमे पयरोलो एवं के टोली जगह हो लेट है। . . . . . . . . आते है, दो ही घटेमें गरोरजनित प्रमादको वगनत टणम्पर्ण-मार्ग में चलते हुए कार्ट या कांच 'करके चौथे पहर पुन: मामायिकमें बैठ जाते हैं. ऐसे / . आदिसे घरण विद एव' क्षत विक्षत क्यों न हो जाय माधु शय्याविजयो कहलाते हैं। पर मुनि उसे मी पोतराग भाषसे महन करते है-उस । पाक्रोग-मांग में गमग करते देख पानीपुरुप उन्हें को दूर करने का कोई भी प्रतीकार नहीं करते। गालियो भो देते हैं, 'निनल, तू नेगा क्यों फिरता है. मन-शरीर पर चल उड़ कर पड़ जाती है । 'पादि दुट वचन बोलते हैं, उनकी भरस ना करतेसा पानी भरस जाता है, फिर धल पड़ जातोशरीर मल. कभी कमी महाक र पापो लोग उन्हें मारने भो हैं. महिस हो आता है, परन्तु मनचय में परम तपस्त्री मुनि परन्तु. मातरमका स्वाद मेनवाले 'वे, यतीमार माण.', उससे जरा भी ग्यानि नहीं करते किमामलको गरीरका