पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टम भाग.djvu/५८४

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जैनधर्म ५२६ धर्म समझ कर ग्रामोव गुगोंके विशुद्ध बनाने में प्रयान- भावोंकी कोटिम मुनिधर्म को वृत्ति प्य त नहीं होती। शील होते हैं। . . . . उसी रामपत्ति के कारण मुनियोंको मच्या पार गेदों में . .. मत्कार पुरस्कार-यदि कोई उनका सत्कार नहीं । विभक्त हो जाती है-१ पुलाक. २ वकुश, ३ कुशीन, करता तो वे यह नहीं विचारले कि 'मैं बहत बड़ा तपस्वी ४ नियंन्य धीर५ सातक। • हूं, फिर भी यह मुझे क्यों नहीं नमस्कार करता, वाक्यों पुनाक मुनि वे कहलाते हैं जो मूलगुण तो मभो 'नहीं मेरो पूजा करता' किन्तु विना किमी गर्वक वे सरल । पानते हैं, पर उत्तरगुणों के पालने में जिन्हें राग-प्रतिके भांवमें अपने प्रात्मीय उपयोग हो स्थिर रहते हैं। कारण बाधाएं उपस्थित हो जाती हैं। वे वाधाएं इस प्रज्ञा-यदि तपके प्रभावमे उन्हें यक्षोण मानप्त प्रादि प्रकार हैं-निग्रंन्य-लिङ्ग धारण करके भी कभी कभी ऋड़ियां भी प्राश हो जाय एवं अवधिज्ञान, मन-पर्ययः । शरीरमे घनुराग होना, शरीरको सुन्दरतारी अनुराग ‘ज्ञान प्रादि महान् ज्ञान भी प्राप्त हो जाय, तो भी वे ' की कुछ वामनाका होना, प्रभावनाके लिये स्व-याकी 'कभी उस प्रजाका धम नहीं करते, किन्तु प्रात्मीय ' या कत्तिाका रवना, कमण्डलु और पोछो यदि नवोन मिल 'गुणोंको अचिन्त्य समझ कर उन्हों के चिन्तयनमें मन : जाय तो उनमें भी यत्किश्चित् रागका रखना, यदि पुरानी लगाते हैं। हो तो नवोन मिल जानेकी कभो २ प्राकाझा करना मान-सी प्रकार यदि उन्हें बहुत तप करने पर भो । इत्यादि जो थोडा राग-भाव धारण कर उत्तरगुणोंमें जानका अधिक यिकाग नहीं प्राप्त हो और न कोई विगधना कर डालते है, वे पुनाक-मुनि कहे जाते हैं। ऋधि हो प्राश हुई हो, तो भी वे यह नहीं मोचते कि मूलगुणों का पालन करनेमे के मुनिवृत्तिमे शुत नहीं 'एतने दिन तप करने पर भी विशेष जान और ऋद्धि ययौं । होते और इसीलिए वे मुनियों के पांच भेद सम्हाले नहीं मार्ग होतो' किन्तु ज्ञानापरणकर्म की प्रबलता जाते हैं। यदि उनका कोई पाचरण मुनिधर्म को समझ कर निकाय परिणाम रहते हैं। गिरानेवाला होता, या उम पदकी अपेक्षा उनके भाम • दर्शन-दमो प्रकार परम योगी मुनि यद नहीं। होनता होतो तो वे मुनिकोटिम न सम्हाले जाकर मार्ग सोचते 'कि महामतियों को तबके प्रभावमे देव भी सहा पतित ममझे जाते पुन्लाका मुनि महावतीको पूर्णरूपसे यक होते हैं और भो चमत्कार उत्पन्न होते है परन्तु क्या | धारण करते हैं। यह पुलाककी कना ममस्त मुनि- ये बातें मब झूठी हैं अथवा हमें क्यों नहीं कोई देवकी भेदोंमें जघन्य है। प्रागेके सच भेद उत्तरोत्तर विशेष महायता प्राहा होतो'। चारित्र धारक एवं विरादि-विशेष धारण करनेवाले होते ... इस प्रकार वाईम परोपहोंको जोतते हुए ध्यानो गये हैं। मुनि किन्हो विकारनिमित्तों के पाने पर भी, विकारी वकुम-मुनिका चारित्र यद्यपि पुलाक मुनिकी अपेक्षा एवं चलितत्ति नहीं होते। यदि मुनिगणा भी समारो| अधिक उन्नत एवं निर्मल होता है, मघापि उनके उत्तर- जोबोके ममान व्यवहार या कपाय वासना वगङ्गत गुणों में भी कुछ ( घोडीसी) विराधना हो जाती है । हो जाय तो फिर उनमें नया ममारी जोवों में कोई वह विगधना सो जातिकी होतो है। वे कभी कभी विशेषता नहीं रहे। अपने गुरुपोंसे यत्किश्चित् राग करने लगते हैं। रागसे . . सभो ननियो यद्यपि चाय चारिख ममान रहता है. यहां इतना ही प्रशेजन है कि वे धामिक राग करते हैं, मभो नग्न होते हैं, भावमि भो ममोके छठा गुणस्थान ! परन्तु मुनिधर्म में यह भो यर्जित है। हुए विना मुनिधर्म नहीं ममझा जाता. तथापि चारिक • गोल-मुनिका चारिख वकुम मुनियाँमे मो ममधिक मोहनोय के निमित्तम किहों किन्दों मुनियोंमें यत्किञ्चित् । निर्मल एवं' ममुवत होता है। कुछ लोग कुशील नाम रूपमें गग-प्रत्ति की प्यन्ति पाई जाती है। वह भी वहीं होने में उन्हें दूपित. चारियधारो समझते होंगे, परन्तु तक पायी जाती है जहां तक उनके याच चारिख एव' ऐमा ममझना अमानता है। कुचीन दुचरित्रको भी Vol. VIII. 133