पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टम भाग.djvu/५८५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

नैनधर्म फरी है, परन्तु कुशीन गन्दका उन्ना अर्थ यहां पर नहीं। जिन साधुओं के जानावरण, दर्शनावरण, पसराय लिया जाता, पोर न वैमा अयं परम तपम्त्री, परम | और मोहनीय, ये चारों हो घाति-कम नष्ट हो । वीतरागो आग्मनिष्ठ मुनियों के प्रकरणमें लिया हो जा हो, जो अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्नामुम्ब एवं मकता है। यहां पर कुगोल शब्द रूढ़ि सिद्ध है, रूढ़ि | अनन्तवीर्य इन शक्तियों के पूर्ण विकागको माग कर के . सिद गग्दीका अर्थ नियत वा पारिभाषिक ही लिया जाता | हो, वे ही तेरहवे गुणस्यानवी थोपहनत केली .. है। प्रशतमें कुशीन गन्द मुनियोंके भेदाम नियत है इम सातक कहलाते हैं। मुनियों को चरम अवस्था प्राम लिये उमझा अर्य मुनिपद निर्दिष्ट चारित्र विशेष रूप होने वाली चरम प्रात्मोवति को 'सातक' मजा है। लिया जाता है। यद्यपि पांचों मुनियों के चारित्रमें कपायोंकी हीना. जो मुनि पूर्ण एवं प्रखगड महावत धारण करते हो। धिकता एवं अभावमे विचित्रता है, उनके चारित जघन्य. ममस्त मूलगुण धारण करते हो, अट्ठाईस मून गुणमि मध्यम, उत्तमभेदों में परिगणित किये जाते हैं, तथापि कभी विराधना नहीं आने देते हो, ऐमे पाम तपस्वी पांची ही मुनि मुनिपदको थेगो है। इतना धारिख माधुनोंको कुगीन मंशा है। किसो पदमें नहीं गिरता अथवा एतनी कयायों को कुगीन मुनियों के दो भेद हैं, एक प्रतिसेयना कुशीन प्रबलता किसी पदमें नहीं है, जिसमे व मुनिपदको दूमरा कपायकुगोल, जिन्होंने ममत्वभाव सर्वथा नहीं योगीसे पतित समझ जाय। इसलिये पांचों हो मुनि छोड़ा है, गुरु आदिमे ममत्व रखते हैं, मघ नहीं छोड़ना निम्र न्य- लिंगके धारक, अहाईम मूलगुणों के पानक. . परम तपस्वी होते हैं। जिस प्रकार कोई मी चका चाहरी, जो मूलगुण और उत्तरगुण दोनीको पानते है. परन्तु कभी कभी उत्तरगुणों में त्रुटि करते जाते हैं। सोना होता है । कोई कुछ कम दर्जेका होता है. परन्तु . . वे प्रतिमेवना-कुशील माधु कहनाते हैं। गर्मियों में नर्णत्व सममें रहने सभी मोनेके भेटों में पा जाते हैं. अधिक गर्मी के मंतापमे जो कभी कभी टिनम पाटप्रचालन उसी प्रकार यहां भी समझ लेना चाहिये। निम्र न्यः लिङ्गः' र डालते है यम इतने मात्र ही उनके उत्तरगुणों की मम्यग्दर्शन, पोर वीतरागता सामान्य रूपसे मभी' मुनियों में पायी जाती हैं। विराधना वा त्रुटि है। ___ उपर्युस पाचों प्रकारके मुनि सामायिक, छेदोप- ___कपायकुशील उन्हें कहते हैं, जो समस्त कपार्योको जीत चुके हो, केवल मज्वलन कपायको जीतने में स्थापना, परिहारविशहि, सूक्ष्ममाम्पराय और ययाल्यात . इन पाचों प्रकारके पारिवका पालन करते हैं। अममर्थ हो जिम चारित्रमें हिंसा, झूठ, चोरो, कुगोल एवं परि- जिम प्रकार पानीमें लकड़ीको रेखा की चरी खोचते ग्रह इन पक्षपापों का त्याग क्रमसे नहीं किया जाता, ही नट हो जाती है। उमो प्रकार जिनके कर्मो का उदय किन्त मनियों की एकाग्र-ध्यानावस्याम समस्त पापीका नहीं हुआ हो और एक मुहर्त याद जिनके केयनदर्शन स्वयमेव सर्व या त्याग हो जाता है, तथा अहिंमा, मत्य, पौर केचनजान प्रगट होनेवाला हो, उन मुनियोंको निर्ग्रन्या नग्रन्या प्रचौर्य, ब्रह्मचर्य, परिग्रहत्याग इन पाचों महायतो का कहते हैं। यद्यपि निग्रंन्य मुनि मभी परिग्रह रहित पूर्णतः पालन भी स्वत: हो जाता है. उम चारित्रको मुनियों को कहते हैं, अन्य नाम परिग्रहकाठममे रहित 'सामायिक चारित्र' कहते हैं। निन्य कई लासे है, मोलिये मुनिमात्र हो नियंया जिस पारिवमें, मुनियों में किसी प्रमादजनित पपः कर जाते हैं. तथापि यहां पर पांच मुनियों के भेदमि ओ राधक होने पर उन्हें प्रायचित प्रदान किया जाता है, निर्यन्य भेद है व मामान्य मुनियों में गृहीत नहीं। वह 'दोपस्थापना नारिख कहलाता है। होता उपशान्त कपाय एवं कोण कपाय गुणम्यानयर्ती जिम चारिवमें जीयों को रक्षाका पूर्ण प्रयाय एवं हो नि मुनि कहलाते हैं। उन्हीं कामहत राहि-विशेष धारण की जाती है, पर 'परिहारविहि. पछि के तमाम शेने की योग्यता । . !चारिय' कहलाता है। . . .