पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टम भाग.djvu/५९०

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'जनधर्म हारा बची हुई शेप अधाति कर्मप्रशतियों और शरीरको । चौर ईश्वरके जगत्मा होनिमें इस प्रकार दोष दिख- भी छोड़ कर तत्काल स्वभावमिद जहुँ गमनक्रियामे मौध | लाते हैं- ऊर्ध्व लोक (नोकगिग्यरके अन्तमें स्थित मिरलोकमें)| यदि तमाम जगत् परमात्मा या ईश्वरका स्वरूप वले जाते है। फिर उनको प्रहन्त मना छट कर मिड होता तो जानो, प्रजानो, मुखी, टुग्वी शादिका प्रभेद न 'मना हो जाती है । म अवस्थामें वे आत्मीय परम होता-मम्म गर्ग जगत् एकरम, एकस्वभाव और पभेद. । निराकुल पविनम्वर अनन्त सुबका धनुभव करते हुए | भावको पास करता। लोक अलोकको देखते य जानते रहते है और वहांम यदि यह कहा जाय कि ब्रह्म एक हो है पीर माया फिर वे कभी भी मसारमें लौट कर नहीं पाते। उसमे भिन्न है वा ब्रह्म मचिदानन्दस्वरूप है और जग- जैनमतानुमार सिद्ध पीर ईखरमें कोई अन्तर नहीं। दादि मर्व मायाजन्य है, तो इम कथनमें दोप पाता है। है। वे कहते हैं-मिडपरमारमाके न इच्छा है, न राग माया और ब्रह्ममें प्रभेद क्या है ? यदि जड़ बतलाते हो, है, न प है, न रोर है और न कोई परतन्त्रता है | तो फिर वह नित्य है या अनित्य ? यदि अनित्य है. तो . ऐमो अवस्था में परमात्मा जगत्का निर्माण भी नहीं कर | वह विनावर पोर कार्य रूप ममझा जायगा । यदि कार्य सकता है। जगत्के निर्माण करनेमें इन्श, शरीर एवं! बतलाते हो, तो उमका कारण भी जहर होगा। सुतरां गगवेष आदि ममी बातोंकी अनिवार्य प्रावणकता है। मायाका उपादानकारण क्या है ? यदि कहो, कि माया बिना उन कारणोंके कभी कोई किमो प्रकारको रचना ही उपादानकारण है, तो अनवस्थादोष घटता है। करने में समर्थ दुवा हो. ऐमा उदाहरण भी अमम्भव है। यदि ब्रह्मको उगदानकारण कही हो, तो ब्रह्म हो स्वयं यदि उता कारणों का महा ईखरके स्वीकार किया जाय | मव कार्य करते हैं. यह कहना पड़ेगा। ममें भी तो फिर उसमें मसारियों से कोई विशेपता भी नहीं | पूर्वोक्त दोष पाता है। यदि मायाको नित्य और चैतन्य रह जाती । इमलिए जगत्का निर्माण परमारमा नहीं कर माना जाय, तो फिर आईतवाद नहीं रहता । यदि कहो, . सकता, जगत् अनादि निधन है; न उसे कोई बनाता है कि ब्रह्म और माया एकही है, तो फिर दोनों के भिव ओर न बिगाहता ही है। जो वस्तुओं की रचनाएं देखी नाम देने की आवश्यकता हो क्या है ? एक ब्रह्मक कह 'जाती है, अपने कारणों से होती रहतो है । वह न हो प्रयोजन सिद्ध हो जाता। कारण चेतन ही होना चाहिए, ऐमा'कोई नियम नहीं' वास्तवमें ईश्वर जगत्पत्ती नहीं है। मभो पदार्थी- है, किन्तु नड़ कारणाम भो खयं प्रकतिजन्य प्राकृतिक में अनन्तगति मौज द है, स्वस्व शक्ति द्वारा ही पदार्थ पदार्थोको रचना घोर विघटन होता रहता है। जैसे अपना अपना कार्य करते हैं। जगत्में जो कुछ भी जगलों में वामोंकी रगड़से अग्नि का उत्पन हो जाना काय होते है, उन सबमें काल, स्वभाव, नियति, कर्म पोर इत्यादि । जैनमिहान्तानुसार परमात्मा या ईसर सृष्टिके उद्यम ये पांच निमित्त ही कारण हैं। इनके सिवा पोर रचयिता नहीं है।.. ... . .. निमित्त नहीं हैं। इन पांच निमित्तौमे हो सब कुछ ' यहां प्रति मंक्षेपमे यह सैनमुगियों के प्राचारका | उत्पन्न होता है, यह बात प्रत्यक्ष द्वारा मि हो सकती दिग्दर्शन कराया गया है । विम्त त म्वरूप जाननेके है। यथा- बोज बोया जाता है, तब कालका अनु- लिये मूनाचार, भगयतो पागधनामार, पनगारधर्मामृत | कूल होना जरूरी है, अन्धया बीजापुर उत्पन्न नहीं हो प्रादि जैन ग्रन्य देखने चाहिये । ... . . . मकता। इसके सिवा बीज, जन्न, पृथिवी पादिमें भी .' रसव-कुछ लोग शोको नास्तिक भी कह दिया। प्रभावका होना पनिवार्य है। जिम जिम पदार्थ में जो तारते हैं. किन्तु वह उनका भ्रम है। वास्तवमें न जो स्वभाव है, उसके परिणामको नियति कहा जा मास्तिक नहीं है, वे वर खोकार करते है। हां, वे सकता है। यह भी एक कारण है ! दमो प्रकार जोय. हिन्दुदाय निकोंकी तरह ईश्वरको सृष्टिकर्ना नहीं मानते ! का उद्यम वा पुरुषकार भो एक कारण है। यापांची