पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टम भाग.djvu/५९२

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. . ., जैनधर्म ५३० लिए विभिन्न मन्त्रों मे पूजन करें। इस प्रकार गोंधकी | हामि शोभित बारे। प्रतिमा जिन तीर्थकरकी हो पूजा मम्पन करके मन्दिर निर्माण करावें। उनका चिन्ह उममें अवश्य अंकित करे । यह म तियर अनन्ता धरशान्ति नामक एक चतुष्कोण मगडला चैत्यालय में स्थापित करनी हो तब तो एक विलम्त बनाया जाता है, जिस की विधि प्राणाधरकत 'प्रतिष्ठासारो वा उसमे छोटो होनी चाहिए पोर इममे अधिक जिन द्वार' वा एकमन्धित जिनहिता'मे जाननी चाहिए। मन्दिरमें विराजमान करनो उचित है । इसके बाद प्रतिष्ठा उता मण्डल के मध्यस्थित अष्टदल कमल के बीच पञ्चपा- ! शास्तमें कही हुई विधि के अनुसार तीर्थ का प्रभु जैसे 'मेठियों को स्थापन करके अनादिमिडि मन्त्र द्वारा जोयितावस्या गर्भ, जम्म. दोना, जान पोर निर्माण के उनकी पूजा करें। फिर पाठ कमलपत्रों पर स्थित जया.! समय पांच उत्सव हुये थे उनकी प्रतारणा करनी जला, विजया, मोहा, अजिता, स्तम्भा, अपराजिता और चाहिये । अर्थात् जिनेन्द्र भगवान् के गर्भ पाने के स्तम्भिनी इन बात देवियोंको अध्यं प्रदान करें। इसके समय कुवरलप्त रवों की वर्षा, देवियोक्कन जिनमाताको बाद रोहिणी आदि १६ विद्यादेवियों और चक्र खरो मेवा, श्री अादि छ: कुमारिकाओंसे को गई कर्भ शोधना 'यादि २४ शासनदेवताओं तया ३२ यधोंको साक्षी स्वप्नोंक देखने के बाद उनका पति फन्त सुनना, होने- 'पूर्वक जिनप्रतिमाका अभिषेक और पूजन करें। इसके | वाले तीर्थ करका गर्भ में पाना और इन्द्र हारा की गई बाट प्रतिष्ठाशास्त्रानुमार छोटे छोटे अनुष्ठानोंको सम्पन्न | जिन माता पिताको पूजा इतनी विधि होतो है, वह करके वेदो निर्माण करावें। सब दिखानी चाहिये । जन्मके ममय जगत्में पान दका . उसके बाद जब मन्दिर बन कर तैयार हो गया हो। होनाती करका जन्म होता. रिता भाटितनके या हो रहा हो, तय पूजानुष्ठान करके उत्तम प्रतिमा | दम प्रतिगय विजया आदि देवियों फ़त भिनमाताकी बनानेवाले शिल्पीको साथ ले (शभभग्न एवं शुभशकुन मेवा, जातकर्म संस्कार, देवों का पाना, इंद्राणी धारा में) प्रतिमा के लिए मिला लेनिको जाना चाहिए। पिला भगवान् बालकको ट्रकी गोदमें मोपना, सुमेरू पर ले पवित्रस्थानकी, मोटी घड़ी, चिकनी, शीतल, सुन्दर, जाना, प्रभुको स्तुति करना, नृत्य करना, नगरीम लाना, सुदृढ़, सुगन्धित, ठोम, उत्कष्ट वर्णविशिष्ट, अधिक चम राजमहन्नमें उत्सव होना, 'ट्रका नृत्य करना, और कोलो, तथा बिन्दु रेखा आदि दोषीमे रहित होनो स्वगं जाना इतनो वाते होतो है, उन सममो दिखाना चाहिए। शिना मिलने पर 'ॐई फट् स्वाहा' म चाहिये। दोना लेते समय वैराग्यकी उत्पत्ति, लोका- शास्त्र मन्त्रको पढ़ कर उसे निकालना चाहिए और घर तिक देवों द्वारा स्तुति, दोचा ग्रहण, केशलुच करण, इंट्र - पर ना कर यथाविधि मन्त्रोचारणपूर्वक पूर्ति धनवानी | सत केगोका धोरममुद्रमें प्रवाहीकरण, भगवान्को मन:- प्रारम्भ करना चाहिए । धातु की प्रतिमा के लिये भी ऐसा पर्य य ज्ञानको उत्पत्ति पादि होते हैं उनको दिखाना ही नियम है। समधातुको हो बनती है। मूर्ति शान्त, | चाहिये । चौथे केवलज्ञानको उत्पत्ति, ममवगरण .प्रसव, मध्यस्थ, नासाग्रस्थित अधिकारी दृष्टियाली, वीत. निर्माण, दिव्यध्वनिको उत्पत्ति प्रादि विशेषतायें दिख- रागताको द्योतक, राम लक्षणोंसे युक्ता, रौद्र भादि दोषी सानी चाहिये । पांचवे निर्माण होने के समय पाठ पवा में मे रहित होनी चाहिये। मूर्ति प्रस्तुत हो जाने पर उम धाना 'याइये। मूति मम्मत हो जाने पर चम, पाठ गुणों को लिख कर पूजना चाहिये। को यिधि सहित सिंहासन पर स्थापित करें। उसके बाद इस प्रकार पांच क्रियायोंके हो जाने के बाद जिन नौन भव, दो चमर, अशोक वृक्ष, दुंदुभि वाजा, सिंहा प्रतिबिय प्रतिष्ठित समझा जाता है और पूजन योग्य मन, भामण्डल, दिव्यभाषा, पुष्पवर्षा इन पाठ प्रातिः । होता है। ___ "भों हो नमोऽभ्यः स्वाहा, ओं ही नमः सिम्यः जिन मूर्ति की पूजा कई तरह होती है एक तो .पाहा, गोह नमः मूरिभ्य: स्वाहा, घों ही नमः पाठकेभ्यः पभिषेश पूर्वक जन चंदन प्रसत (चावन 'पुष्प, नैवेद्य स्वाध को नम: सपंगापुभ्यः स्वाहा ।" : . . । (पशाम ) दीप, धूप पीर फन : इन पाठ .मि पौर _Vol. VI. 135